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इमरजेंसी के 45 साल: पीड़ितों की कहानी उन्हीं की जुबानी - 1975 की इमरजेंसी

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में 1975 की इमरजेंसी के दौरान गोरखपुर की सहजनवां विधानसभा सीट से विधायक शीतल पांडेय की गिरफ्तारी हुई थी. ईटीवी भारत की टीम ने उनसे इस बारे में बातचीत की, कि इमरजेंसी के दौरान किन परेशानियों को झेलना पड़ा.

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इमरजेंसी के पीड़ितों की कहानी

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Published : Jun 25, 2020, 1:21 PM IST

गोरखपुर:25 जून 1975 की मध्यरात्रि को देश में इमरजेंसी लागू हुई थी. इस दौरान चारों तरफ उन लोगों की गिरफ्तारी की जा रही थी जो राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक और छात्र राजनीति जैसी गतिविधियों में शामिल थे. गोरखपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष शीतल पांडेय इन्हीं में से एक थे. जो मौजूदा समय में भारतीय जनता पार्टी से गोरखपुर की सहजनवां विधानसभा सीट से विधायक हैं. उस दौरान उनकी भी गिरफ्तारी हुई थी. उन्होंने 19 महीने गोरखपुर जेल में बिताए थे. इस दौरान उनकी मां का निधन हो गया था, जिसमें वह शामिल भी नहीं हो पाए थे. उन्हें आज तक इस बात का मलाल है. वहीं विवाह के ठीक 2 दिन बाद ही उनकी गिरफ्तारी होने से उनके गौने की रस्म भी 2 साल बाद ही पूरी हुई.

इमरजेंसी के पीड़ितों की कहानी

इमरजेंसी के दौरान ध्वस्त हो गई थी संवैधानिक व्यवस्था

शीतल पांडे कहते हैं कि इमरजेंसी के दौरान देश में कानून नाम की कोई चीज नहीं रह गई थी. संवैधानिक व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी थी. इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज उठाने वालों को गिरफ्तार किया जा रहा था. इसी क्रम में तब उनकी भी गिरफ्तारी की गई जब वह विरोध स्वरूप छपवाए गए पर्चे को कचहरी में बांट रहे थे. उन्होंने बताया कि उनकी गिरफ्तारी एक्शन में हुई थी न कि घर से.

शीतल पांडे इस इमरजेंसी काल को मीसा काल भी कहते हैं, जिसका अर्थ था 'मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट'. जिसे वह लोग इंदिरा-संजय गांधी सिक्योरिटी एक्ट कहते थे. उन्होंने कहा कि जिस लोकतंत्र की वजह से भारत की पूरी दुनिया में एक अलग पहचान कायम थी, उसे इस इमरजेंसी के दौरान रौंद दिया गया था. उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में लोक ऊपर होता है और तंत्र नीचे. लेकिन इंदिरा गांधी ने ऐसा कृत्य किया कि उसमें तंत्र ऊपर हो गया और लोक की हत्या होने लगी. आखिरकार इस बवंडर का असर यह रहा कि इंदिरा और उनकी कांग्रेस 1977 के चुनाव में डूब गई.

इमरजेंसी के दौरान मां की अंत्येष्टि में भी नहीं हो पाए शामिल

शीतल पांडे ने बताया कि इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी हिटलर और मुसोलिनी के बंदी से भी भयावह थी. इसमें तो दीवारों के भी कान होते थे. पति-पत्नी भी आपस में बात नहीं कर सकते थे. पूरा प्रशासनिक तंत्र विरोध के स्वर उठाने वाले लोगों को चुन-चुन कर जेल में डालने पर आमादा था.

शीतल कहते हैं कि संघर्षों में बने रहना उनकी पहचान थी, लेकिन इमरजेंसी के दौरान 18 महीने जेल में रहते हुए जब उनकी मां की मौत हुई और वह उनकी अंत्येष्टि में भी शामिल नहीं हो पाए तो उन्हें बड़ा ही आघात लगा. तत्कालीन कलेक्टर ने अंत्येष्टि में भी जाने की अनुमति नहीं दी.

गिरफ्तारी के 2 दिन पहले उनकी शादी हुई थी, लेकिन पत्नी की विदाई 2 साल बाद हो पाई. उन्होंने कहा कि सामाजिक रुप से इस इमरजेंसी ने काफी पीड़ा पहुंचाई, लेकिन लोकतंत्र की हत्या करने वाले लोगों की इस इमरजेंसी ने पहचान भी मिटा दी.

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