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'स्त्री को समानता का अधिकार देने के लिए पुरुषों की मनोरचना बदलने की जरूरत' - महिला सशक्तिकरण

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में कथाकार प्रेमचंद्र के साहित्य सेवा सदन के 100 साल पूरे हो गए. इस अवसर पर दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में दुनिया भर से हिंदी साहित्य के विद्वानों ने शिरकत की.

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सेवा सदन को हुए पूरे 100 साल

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Published : Dec 17, 2019, 9:40 AM IST

गोरखपुर:कथाकार प्रेमचंद के साहित्य'सेवा सदन' के 100 वर्ष पूरे होने पर दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में दुनिया भर से हिंदी साहित्य के विद्वानों ने शिरकत की. नारी शक्ति पर आधारित साहित्य 'सेवा सदन' पर इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए.

संगोष्ठी का उद्घाटन गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर वीके सिंह ने किया. इसके बाद समाज में नारी को सम्मान, समानता और शक्ति देने के विषय पर व्याख्यान का क्रम जब शुरू हुआ तो एक से बढ़कर एक विचार निकल कर सामने आए. इस पर समारोह में मौजूद लोगों ने जमकर तालियां भी बजाई और भविष्य में सुझाव पर अमल करने की जरूरत भी जताई.

सेवा सदन को हुए पूरे 100 साल
सौ साल बाद सेवा सदन
स्त्री मुक्ति का भारतीय पाठ' विषय पर संगोष्ठी में अपना विचार रखते हुए बीएचयू के प्रोफेसर सदानंद शाही ने कहा कि सेवासदन पर संगोष्ठी करना गौरवशाली स्मृति को याद करना है. प्रेमचंद के साहित्य में गोरखपुर की छाप है इसलिए गोरखपुर का दायित्व है कि वह प्रेमचंद को याद करें. प्रेमचंद्र ने 100 वर्ष पहले जो आवाज उठाई थी स्त्री का प्रश्न वह एक सभ्यतामूलक प्रश्न है. उन्होंने कहा कि नारी को समानता और सम्मान इस पुरुष प्रधान समाज में तभी मिल सकता है. जब पुरुष के मनोविचार मे खुद परिवर्तन आए. वह नारी को इस योग्य समझे ही नहीं उसे सम्मान और शक्ति प्रदान करें.

100 साल पुरानी समस्या पर आज भी कर रहे है चर्चा
दो दिन के इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रुप में शिरकत करने आईं प्रसिद्ध कथा आलोचक प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल ने कहा कि सेवा सदन में सुमन का जीवन तो प्रेमचंद्र दिखाते हैं, लेकिन वह तो 21वीं सदी में भी सुमन को देख रही हैं. उन्होंने कहा कि हमारी समस्या यह है कि हमने तुलना करने के लिए पुरुषों को ही मानक बनाया है. 100 साल पुरानी समस्या पर अगर हम आज भी चर्चा कर रहे हैं तो हम कहां विकसित हुए हैं. साहित्य के मूल्यांकन के लिए उन्हीं पुराने मानदंडों का प्रयोग करना मुझे तो ठीक नहीं लगता क्योंकि मौजूदा समय में स्त्रियों के प्रति लोगों की जो सोच बन चुकी है उसको बदलने की जरूरत है.

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