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चंबल घाटी में बदतर हालात अतीत की ओर कर रहे इशारा... - निर्भय गुर्जर

चंबल घाटी के बारे में आप सभी ने सुना होगा. कहते हैं जिसने भी चंबल का पानी पिया वह बागी जरूर होता है. यहां के डाकुओं की कहानी आज भी लोगों के जेहन में बरकरार हैं, लेकिन आज यहां पेट की आग भी नहीं बुझ रही है. ग्रामीणों को भय है कि अगर ऐसा ही रहा तो एक बार फिर यह क्षेत्र अपने अतीत में न चला जाए.

चंबल घाटी.
चंबल घाटी.

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Published : Jul 12, 2020, 7:15 PM IST

Updated : Sep 4, 2020, 12:24 PM IST

इटावाः डकैतों की शरण स्थली कही जाने वाली चंबल घाटी कोरोना महामारी चलते अपने बदतर हालात पर आंसू बहाने को मजबूर है. मलखान सिंह, निर्भय गुर्जर, फूलन देवी, अनीसा बेगम और ददुआ जैसे न जाने कितने डाकुओं की यहां कहानी दबी हुई है, जिनका नाम सुन लेने भर से आज भी लोग थर्रा उठते हैं. बीहड़ों के गांवों में लॉकडाउन की वजह से लौटे प्रवासी युवा काम न मिलने से परेशान नजर आ रहे हैं. देश के अलग-अलग राज्यों से अपने गांव वापस पहुंचे युवा काम न मिलने से खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. ऐसे में यहां के लोग सरकार से रोजगार की आस लगाए बैठे हैं.

चंबल घाटी के हालात.

मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर चकरनगर इलाके के सैकड़ों गांव चंबल इलाके में आते हैं, जहां का युवा देश के हर राज्य में नौकरी करता है. कोरोना महामारी के चलते युवाओं को वापस अपने गांव आना पड़ा, लेकिन चंबल के इलाकों में हर किसी को फावड़ा पकड़ने की आदत नहीं है. मनरेगा है कि हर किसी युवक का पेट की आग बुझाने में सक्षम साबित नहीं दिख रही है. युवा सशंकित हैं कि कहीं पेट की आग और लाचारी उनको गलत रास्ते पर ले जाने को मजबूर न कर दे.

मनरेगा में चंद दिन मिला काम बंद, समोसा-जलेबी बेचने को मजबूर
गांव का मुख्य व्यवसाय कृषि है, जिसे करने वालों की आबादी दो से ढाई हजार के बीच है. यहां के छोटे-छोटे गांवों में गेहूं और सरसों की खेती होती है. लॉकडाउन के बाद यहां करीब 70 युवा प्रवासी महाराष्ट्र, जोधपुर, गुजरात, दिल्ली और गुड़गांव से वापस आए हैं. महामारी के दौर में ये बेबस लोग नौकरी छोड़कर गांव में ही रहने को मजबूर हैं. आलम ये है कि कुछ युवा समोसा जलेबी बेचने को मजबूर हैं तो कोई बर्फ बेच रहा है. यहां के लोगों की मानें तो महज 4 दिन ही मनरेगा में काम मिला, जिसके बाद फिर बंद हो गया.

सभी को रोजगार मिले, यही प्राथमिकता
यहां के हालात को लेकर जब जिलाधिकारी जे बी सिंह से बात की गई तो उन्होंने बताया कि लगातार जो भी बाहर से लोग आए हैं, उनकी स्किल मैपिंग कराई जा चुकी है. इसके बाद जो जिस स्किल में पारंगत है, उसे उसी विभाग में काम दिए जाने का प्रयास किया जा रहा है. वहीं जो बिना किसी स्किल के लोग हैं, उन्हें मनरेगा के तहत काम दिया जा रहा है. इसके लिए कोशिश बड़े पैमाने पर चल रही है ताकि हर व्यक्ति को काम मिल सके. यही इस समय हमारी प्राथमिकता है.

हालात नहीं बदले तो लौट सकता है पुराना अतीत
बीहड़ के जरहोली गांव में परचून की दुकान चलाने वाले सुरेंद्र सिंह कहते हैं कि 20 साल पहले इस इलाके में डकैतों के खौफ से लोग आने से डरते थे. युवाओं की शादी तक नहीं होती थी. गांव का युवा यह गांव छोड़कर दूसरे राज्यों में नौकरी करने चला गया, लेकिन आज वही स्थिति दोबारा दिखती नजर आ रही है. महामारी से युवा वापस अपने गांव तो आ गया लेकिन न खेती है न मनरेगा में काम. शहरों में फैक्ट्री में काम करने वाले युवा धूप में 2 घंटे खड़े होकर काम नहीं कर सकते हैं. रोजगार के अन्य कोई साधन नहीं हैं. ऐसे में क्षेत्र का युवा करे भी तो क्या ? इन हालातों को देखकर ऐसा लगता है कि अगर युवाओं को रोजगार नहीं मिलेगा तो पहले जैसा दौर लौटने के साथ ही क्षेत्र में फिर से अराजकता की संभावना बढ़ सकती है.

गलत रास्ते पर जाने के लिए मजबूर न कर दे बेरोजगारी
जोधपुर में मजदूरी करने वाले विकलांग सोहन सिंह राजपूत पेट पालने के लिए बर्फ बेच रहे हैं. कहते हैं कि युवा सरकार की ओर रोजगार के लिए आस लगाए हैं. अगर काम नहीं मिलेगा तो क्षेत्र में चोरी, डकैती और भैंस चोरी समेत कई घटना शुरू हो जाएंगी और बेरोजगार युवा गलत रास्तों पर जा सकता है.


बार- बार भराया जाता है फार्म
गांव के बुजुर्ग ग्रामीण कहते हैं कि यहां पर लोगों के पास जो प्रवासी आए हैं, उनके पास खाने-पीने तक के साधन नहीं हैं. सरकार वादा तो करती है, लेकिन कुछ पूरा होता नहीं दिख रहा है. मनरेगा के तहत भी काम नहीं मिल रहा है. रोज यह कह जाता है कि फार्म भरें, काम मिलेगा. अब ऐसे में लोगों के पास इतने पैसे ही नहीं है तो कहां से फार्म भरें? बाहर से आए लोग आसपास के लोगों से ले देकर अपना जीवन काटने को मजबूर हैं.

Last Updated : Sep 4, 2020, 12:24 PM IST

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