एटा:आज से करीब 44 साल पहले 25 जून 1975 की रात जैसे ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की. उसके बाद ही विपक्षी नेताओं वह आलोचकों पर इमरजेंसी यानी कि मीसा कानून के तहत कार्रवाई शुरू हो गई. उस दौर में एटा के सैकड़ों लोगों पर भी मीसा व अन्य कानूनी कार्रवाई की गई. इसी तरह के कुछ लोगों में से एक मीसा के तहत जेल में बंदी रहे अविनाश चंद्र व मीसा बंदियों की नि:शुल्क लड़ाई लड़ने वाले अधिवक्ता नारायण भास्कर ने ईटीवी भारत के साथ अपनी यादों को साझा किया है.
मीसा के तहत जेल में बंदी रहे अविनाश चंद्र ने ईटीवी भारत से की बात:
- अविनाश चंद्र का बचपन आजादी से पहले पाकिस्तान के लाहौर स्थित एक गांव में बीता था.
- देश के बंटवारे के बाद वह अपने बड़े भाई के साथ एटा चले आए और यहीं पर बस गए.
- अविनाश चंद्र 1975 के समय गन हाउस की दुकान चलाते थे.
- उस समय उनका कुछ लोगों से विवाद हो गया था, बाद में इन्हीं लोगों ने तत्कालीन डीएम से उनकी झूठी शिकायत कर दी थी.
- जिसके चलते इमरजेंसी लगते ही एक दिन उनको दुकान के बाहर निकलते ही पकड़ लिया गया.
- अविनाश चंद्र ने बताया की करीब साढे 17 महीने वह जेल में रहे.
- इस दौरान मीसा कानून के तहत बंद सभी बंदी एक बैरक में रहते थे और अपने हाथ से खाना बनाकर खाते थे.
इमरजेंसी के दौर के बंदियों ने सुनाई आपबीती.
इमरजेंसी बंदियों की निशुल्क लड़ाई लड़ते थे अधिवक्ता नारायण भास्कर
बात 25 जून 1975 के रात की है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी. उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन संघचालक बाला साहब देवरस सहित संघ के प्रमुख नेता उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में चल रहे संघ के प्रशिक्षण शिविर में थे. इस दौरान एटा के अधिवक्ता नारायण भास्कर भी इस शिविर में द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण ले रहे थे. इमरजेंसी की घोषणा होते ही संघ के लोगों को भी समझ में आ गया था कि जल्द ही संघ भी इसकी चपेट में आ जाएगा. इसी के चलते फिरोजाबाद में चल रहे शिविर को एक दिन पहले ही समाप्त कर दिया गया. इसके बाद फिरोजाबाद से नागपुर जाते समय संघचालक को गिरफ्तार कर लिया गया.
अधिवक्ता नारायण भास्कर के मुताबिक 3 जुलाई 1975 को संघ पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया. प्रतिबंध लग जाने के कारण संघ के प्रमुख कार्यकर्ता भूमिगत हो गए. इस दौरान संघ ने हमारे ऊपर बड़ी जिम्मेदारी सौपी. जिसके चलते मैं मीसा बंदियों की जमानत कराने के लिए कोर्ट में नि:शुल्क पैरवी करने लगा. इतना ही नहीं बंदियों के जमानत में जो 25 रुपये का खर्च आता था. वह भी यदि बंदी के परिवार देने में असमर्थ होते थे, तो मैं अपने पास से वह पैसा भी लगा दिया करता थे. इन्हीं कार्यों के चलते प्रशासन हमारे ऊपर कानूनी शिकंजा कसने की तैयारी कर रहा था. हालांकि प्रशासन की मंशा यहां पूरी नहीं हो सकी.
फर्जी मुकदमें और गवाहों के बल पर लोगों को बनाया जा रहा था बंदी
अधिवक्ता नारायण भास्कर ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि जनता पार्टी के जिला अध्यक्ष बने ब्रह्मानंद गुप्ता व उनके साथियों पर रेलवे स्टेशन से करीब 1.5 किलोमीटर दूर मेहता पार्क में रेल का इंजन फूंकने का आरोप लगा. इस मामले में विवेचक द्वारा पूरी मेहनत से मामला तैयार किया गया था. लेकिन अदालत के समक्ष जब विवेचक यानी कि दरोगा से पूछा गया कि मेहता पार्क के पास कोई रेल की पटरी नहीं है और न ही कोई रेलवे स्टेशन ऐसे में मेहता पार्क में ट्रेन का इंजन कहां से आया. इस पर दरोगा कोई जवाब नहीं दे सका और अगली तारीख से उसने आना ही बंद कर दिया, जिसके बाद सभी लोग बरी हो गए. इतना ही नहीं नारायण भास्कर की माने तो मुकदमों में पुलिस ने पेशेवर गवाह बना रखे थे. जब गवाहों की लिस्ट देखी गई तो एक गवाह 10-10 मामलों में गवाही दे रहा था.