चित्रकूट: श्री रामचंद्र की तपोभूमि चित्रकूट में रह रहे शबरी के वंशज आज भी वनों पर आश्रित हैं. डिजिटल इंडिया और विकास की किरण आज भी इन्हें नहीं छू पाई है. यह लोग रोजगार के नाम पर जंगल की लकड़ी के सरगड्ढे बनाकर मिलों दूर कस्बों तक बेचने तक ही सीमित हैं. कभी जमींदारों के खेतों में बंधुआ मजदूर की तरह सेवा देते आए इनके पुरखे पर आज जमीदारों की जमीन से विस्थापित होकर एकांकी जीवन जी रहे हैं.
इस कड़ाके की ठंड में सिर्फ आग ही इन आदिवासी का सहारा है. मुनासिब बिस्तर न होने के कारण रात भर आग के सामने बैठकर सुबह की किरण निकालने का इंतजार करते हैं. श्री रामचंद्र को 14 वर्ष के वनवास के समय जिन्होंने अपनी कुटिया में आश्रय देकर मीठी बेर खिलाए आज वह खुद निराश्रित जीवन जी रहे हैं.
लकड़ियों पर आश्रित है जीवन
जिला चित्रकूट के विकासखंड मानिकपुर बगदरी ग्रामपंचायत से सटे जंगल में करीब 40 परिवारों के कबीले में लोग जंगल की लकड़ियों पर आश्रित हैं. यह कोल आदिवासी के पुरुष सुबह की पहली किरण के साथ जंगल जाकर लकड़ी लाते और फिर महिलाएं उन लकड़ियों को अपने सर पर रख कर मिलों दूर कस्बों शहरों में बेचकर आटा, दाल, चावल का इंतजाम करती हैं. यह पूरा काम इन आदिवासियों की दिनचर्या में शामिल हैं.
विकास के नाम पर एक हैंडपंप
विकास के नाम पर 40 परिवारों के बीच एक हैंडपंप और कुछ सोलर लाइट लगाकर शासन-प्रशासन ने अपना पल्ला इनसे झाड़ लिया हैं. यहां पर सिर्फ विकास की बातें की जा रही हैं. ग्रामीणों का कहना है कि न तो अभी तक शौचालय ही मिला है न ही आवास. हालांकि कुछ न कुछ राशन जरूर मिल जाता है और कभी स्कैन न होने पर वह भी नहीं मिल पाता.