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चित्रकूट: श्रीरामचंद्र की तपोभूमि में शबरी के वंशज बेहाल, फूस की छत से झांकता है 'विकास'

उत्तर प्रदेश के चित्रकूट के पास के एक जंगल में रह रहे आदिवासी आज भी विकास से अछूते हैं. इन लोगों के पास छत के नाम पर फटी पन्नी हैं.सरकार की नजरअंदाजी इन्हें और भी पिछड़ा बनाती जा रही है.

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नहीं है रहने को छत और न खाने को अनाज.

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Published : Dec 17, 2019, 10:10 AM IST

Updated : Dec 18, 2019, 1:30 PM IST

चित्रकूट: श्री रामचंद्र की तपोभूमि चित्रकूट में रह रहे शबरी के वंशज आज भी वनों पर आश्रित हैं. डिजिटल इंडिया और विकास की किरण आज भी इन्हें नहीं छू पाई है. यह लोग रोजगार के नाम पर जंगल की लकड़ी के सरगड्ढे बनाकर मिलों दूर कस्बों तक बेचने तक ही सीमित हैं. कभी जमींदारों के खेतों में बंधुआ मजदूर की तरह सेवा देते आए इनके पुरखे पर आज जमीदारों की जमीन से विस्थापित होकर एकांकी जीवन जी रहे हैं.

नहीं है रहने को छत और न खाने को अनाज.

इस कड़ाके की ठंड में सिर्फ आग ही इन आदिवासी का सहारा है. मुनासिब बिस्तर न होने के कारण रात भर आग के सामने बैठकर सुबह की किरण निकालने का इंतजार करते हैं. श्री रामचंद्र को 14 वर्ष के वनवास के समय जिन्होंने अपनी कुटिया में आश्रय देकर मीठी बेर खिलाए आज वह खुद निराश्रित जीवन जी रहे हैं.

लकड़ियों पर आश्रित है जीवन
जिला चित्रकूट के विकासखंड मानिकपुर बगदरी ग्रामपंचायत से सटे जंगल में करीब 40 परिवारों के कबीले में लोग जंगल की लकड़ियों पर आश्रित हैं. यह कोल आदिवासी के पुरुष सुबह की पहली किरण के साथ जंगल जाकर लकड़ी लाते और फिर महिलाएं उन लकड़ियों को अपने सर पर रख कर मिलों दूर कस्बों शहरों में बेचकर आटा, दाल, चावल का इंतजाम करती हैं. यह पूरा काम इन आदिवासियों की दिनचर्या में शामिल हैं.

विकास के नाम पर एक हैंडपंप
विकास के नाम पर 40 परिवारों के बीच एक हैंडपंप और कुछ सोलर लाइट लगाकर शासन-प्रशासन ने अपना पल्ला इनसे झाड़ लिया हैं. यहां पर सिर्फ विकास की बातें की जा रही हैं. ग्रामीणों का कहना है कि न तो अभी तक शौचालय ही मिला है न ही आवास. हालांकि कुछ न कुछ राशन जरूर मिल जाता है और कभी स्कैन न होने पर वह भी नहीं मिल पाता.

छत के नाम पर है फटी पन्नी
कवित्री का कहना है कि चाहते है कि हमारे गांव में भी आवास और शौचालय हो, रोड बने ताकि हमारा जीवन भी औरों की तरह सुखमय हो सके. कई बार हम लोगों ने इस संबंध में ग्राम प्रधान और विकासखंड के चक्कर काटे पर हमें आश्वासन ही मिला. उज्ज्वला योजना के नाम पर हम सिर्फ इंतजार कर रहे हैं क्योंकि अधिकारियों का कहना है कि जब तुम्हारा नंबर आएगा तुम्हें गैस सिलेंडर के साथ चूल्हा भी मिल जाएगा.

लकड़ी के सरगट्ठे जंगल से लाकर बेचने से जो 50 सो रुपये मिल जाते हैं, उसी से जीवनयापन कर रहे हैं. आदिवासी लोगों के पास आवास के नाम पर फटी पन्नी की छत और अगल-बगल फटे कपड़ों की दीवारें हैं जो ओस और ठंड को नहीं रोक पाती. वह सर्द हवा चीरते हुए इनकी झोपड़ी में घुसती हैं. बच्चों को ठंड से बचाने के लिए रातभर आग जलाकर रखनी पड़ती है. बिस्तर के नाम पर दूसरों के खेत से उठाए घास-फूस हैं, जिनके सहारे बच्चे पल रहे हैं.


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Last Updated : Dec 18, 2019, 1:30 PM IST

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