चित्रकूट:आधुनिक परिवेश में आदिवासियों की जीवन शैली में बदलाव आया है. आज भी इन्होंने अपनी परंपराओं के बीच पारंपरिक गीतों को संजो कर रखा है. इन गीतों को यह कोल आदिवासी किसी त्योहार और मनोरंजन के मौके पर गाकर आनंद लेकर नाचते हैं. इन गीतों को कोल आदिवासियों ने अपने ही नाम की संज्ञा दी है. यह गीत कोल्हाई और राई कहलाने लगे हैं.
धर्म नगरी चित्रकूट में कोल आदिवासी और श्री रामचंद्र जी का बहुत पुराना नाता है. यह वही कोल भील आदिवासी हैं, जो शबरी के वंश में पैदा हुए हैं. वहीं शबरी जिसने अपने झूठे बेर श्री रामचंद्र को वनवास के दौरान खिलाए थे. इन कोल आदिवासियों का जंगल से पुराना नाता रहा है. यह आज भी जंगलों से सटे बीहड़ के गांव में रहते हैं पर आधुनिक परिवेश में इनकी जीवन शैली में काफी बदलाव आया है.
कभी यह आदिवासी जंगल के कंदमूल पर आश्रित हुआ करते थे, लेकिन अब यह आधुनिक परिवेश की भागती दौड़ती जिंदगी में मेहनत मजदूरी कर अपना गुजारा करते हैं. कई आदिवासी बड़े किसानों के खेतों से लेकर भवन निर्माण में मजदूरी के काम में लगे रहते हैं.
बसंत से शुरू होता है फाग का कार्यक्रम
बसंत ऋतु से शुरू होने वाला फाग का कार्यक्रम पूरे एक महीने तक इन कोल आदिवासियों का मनोरंजन का मुख्य जरिया रहता है. यह कोल आदिवासी आपस में मिलकर किसी देव स्थान पर भंडारे का आयोजन सामूहिक रूप से करते हैं. सभी मिल-जुलकर उसमें पकवान और खानपान की सामग्री बनाते हैं और फिर फाग गाया जाता है.