बरेलीः यूं तो जिले की अपनी अलग पहचान है, लेकिन यहां 200 वर्ष से भी अधिक समय से कुछ परिवार अपने पुस्तैनी काम से आज भी जुड़े हैं. उसी को अपना पेशा बनाकर दुनिया को रोशन करने में मददगार भी साबित हो रहे हैं. बरेली में सुरमा बनाया जाता है. इसी बारे में ईटीवी भारत ने सुरमे के कारोबार में लगे लोगों से बात की और ये जानने की कोशिश की कि आखिर वक्त के साथ-साथ क्या उतार चढ़ाव यहां इस काम में आए हैं.
सवा 200 वर्ष पुराना है, सुरमे का कारोबार
आंखों की रौशनी बढ़ाने और चमक को बढ़ाने के लिए लोग आमतौर पर सुरमे का इस्तेमाल करते हैं. बरेली की बात की जाए तो यहां करीब सवा दो सौ वर्षों से सुरमा बनाया जा रहा है.
दरगाह आला हजरत के पास नीम वाली गली में हाशमी परिवार ने ही इसकी शुरुआत की थी. सुरमे का जो कारखाना यहां चलता है, उसे अब उनके परिवार के ही पीढ़ी के लोग आगे ले जा रहे हैं.
'दुआ' की तरह काम करता है सुरमा
ईटीवी भारत ने करीब सवा दो सौ साल पुरानी दुकान चलाने वाले हाशमी परिवार के सदस्य बिलाल हाशमी से बात की. उन्होंने बताया कि सुरमा बनाने के लिए सऊदी अरब से एक पत्थर आता है. उसे गुलाब जल में रखा जाता है. सुरमे की शुरुआत के बारे में उन्होंने बताया कि 1794 उनकी पीढ़ी के बुजुर्ग मोहम्मद हाशम ने सुरमे को बनाया था. उन्होंने बताया कि ये एक दुआ की तरह काम करता है.
एक बुजुर्ग ने दिया था नायाब नुस्खा
बिलाल ने बताया कि करीब सवा दो सौ साल पहले उनका पुश्तैनी काम हीरे जवाहरात से जुड़ा था. वो बताते हैं कि तब कोई बुजुर्ग फकीर भेष में दुकान पर आए थे. इन्हें परिवार ने आदर सत्कार दिया. उन्होंने बताया कि जब वो जाने लगे तो जाते वक्त फकीर ने एक पत्थर दादा के भी परदादा मोहम्मद हाशम को देकर इस बारे में बताकर गए थे. बस तभी से बताए गए नुस्खे के आधार पर सुरमा तैयार किया जाने लगा.
वर्तमान समय में सुरमे के प्रति लोगों में नहीं दिलचस्पी
इस बारे में बुजुर्ग साहब हाशमी कहते हैं कि बरेली में सैंकड़ों दुकानें सुरमे की हैं. हजारों लोग इस काम से रोजगार पा रहे हैं. उन्होंने बताया कि पिछली पीढ़ी तक लोग खूब सुरमे का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब लोग इस तरफ कम ध्यान देते हैं.