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देश की पहली मजार, जहां हिंदू-मुस्लिम एक साथ खेलते हैं होली - हाजी वारिस अली शाह की मजार

बाराबंकी से तकरीबन 12 किमी दूर कस्बा देवां स्थित मशहूर सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की मजार है. यहां न कोई जाति का बंधन है और न ही धर्म का, सभी मिल जुलकर गुलाल और फूलों से जमकर होली खेलते हैं. देश की ये अकेली मजार है, जहां होली खेली जाती है.

haji waris ali shah baba mazar in barabanki
हाजी वारिस अली शाह की मजार

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Published : Mar 29, 2021, 5:33 PM IST

बाराबंकी:यूं तो पूरे देश मे रंगों के इस पवित्र त्योहार होली के अनेकों रूप आपको देखने को मिल जाएंगे, लेकिन बाराबंकी की होली कुछ खास है. यहां के देवां शरीफ की मजार शायद देश की पहली मजार है जहां हर साल होली खेली जाती है. देश के कोने-कोने से तमाम मजहबों के लोग यहां आकर होली खेलते हैं और पूरी दुनिया को मोहब्बत, अमन और भाईचारे से रहने का संदेश देते हैं. सांप्रदायिक एकता की ऐसी मिसाल शायद ही आपको कहीं देखने को मिले.

लोग यहां आकर होली खेलना अपना सौभाग्य मानते हैं.
एक मजार जो बनी है एकता की मिसालबाराबंकी से तकरीबन 12 किमी दूर कस्बा देवां स्थित मशहूर सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की मजार है. यहां न कोई जाति का बंधन है और न ही धर्म का, सभी मिल जुलकर गुलाल और फूलों से जमकर होली खेलते हैं. दुनिया की ये अकेली मजार है, जहां होली खेली जाती है. देश के कोने-कोने से लोग यहां आकर होली खेलना अपना सौभाग्य मानते हैं.महान सूफी संत के समय से खेली जा रही यहां होलीकहा जाता है कि यहां होली खेलने की परंपरा हाजी वारिस अली शाह के समय से शुरू हुई थी. उस वक्त उनके चाहने वाले गुलाल और गुलाब के फूल लाते थे और हाजी साहब के कदमों में रखकर होली खेलते थे. तब से चली आ रही ये परंपरा आज भी जारी है.
सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की मजार
होली के दिन निकाला जाता है जुलूसहोली के दिन यहां के कौमी एकता गेट से गाजे-बाजे के साथ एक जुलूस निकाला जाता है. इस जुलूस में होली खेलते हुए लोग मजार शरीफ तक आते हैं और परिसर में जमकर होली खेली जाती है. होली के इस दिन का लोग पूरे साल इंतजार करते हैं. महिला हो या पुरुष कोई भी इस सतरंगी होली से दूर नहीं रहना चाहता.कौन थे सूफी संत हाजी वारिस अली शाहहाजी वारिस अली शाह का जन्म हजरत इमाम हुसैन की 26 वीं पीढ़ी में हुआ था. उनके वालिद का नाम कुर्बान अली शाह था. सूफी संत वारिस अली शाह का जन्म इस्लामी महीने रमजान की पहली तारीख को हुआ था. बचपन में वह मिट्ठन मियां के नाम से जाने जाते थे. जब वह दो वर्ष के थे तब पिता का साया सर से उठ गया और जब वे तीन साल के हुए तो मां भी चल बसीं. लिहाजा उनकी देखभाल उनकी दादी और चाचा ने की.
यहां होली खेलने की परंपरा हाजी वारिस अली शाह के समय से शुरू हुई थी
हर मजहब के लोग इनके मुरीदकहा जाता है कि दो वर्ष की उम्र में ही हाजी वारिस अली शाह ने कुरान याद कर लिया था और 15 वर्ष की उम्र में वह अजमेर शरीफ ख्वाजा गरीब नवाज के उर्स में शामिल होते हुए हज पर निकल गए. उन्होंने कई बार हज किया. उन्होंने हमेशा प्यार, मोहब्बत, एकता और भाईचारे का संदेश दिया. हाजी वारिस अली शाह लोगों को संदेश दिया करते थे कि "जो रब है वही राम है". उनकी याद में यहां हर वर्ष बड़ा मेला लगता है.होली और नए साल के पहले दिन उमड़ती है जबरदस्त भीड़मजार पर हर वर्ष नए साल के पहले दिन जबरदस्त भीड़ उमड़ती है. लोग मजार पर माथा टेककर ही नए साल के कामों की शुरुआत करते हैं. यही हाल होली पर होता है. हाजी साहब के चाहने वाले साल भर होली के दिन का इंतजार करते हैं. पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, बिहार, कोलकाता, कानपुर, सहारनपुर, मेरठ समेत पश्चिमी उत्तरप्रदेश के हजारों जायरीन होली से दो दिन पहले ही यहां आ जाते हैं. मनजीत सिंह तो हरियाणा से पिछले 30 वर्ष से यहां आकर होली मनाते हैं और अपने साथ लाई हुई गुझिया लोगों में बांटते हैं. महिलाएं भी जमकर होली खेलती हैं. जबरदस्त भीड़ होने के बावजूद मजाल है कि कही कोई अव्यवस्था या किसी के साथ कोई दुर्व्यवहार हो जाए. कुछ लोग ऐसे हैं जो आज भी जाति, धर्म के नाम पर समाज को बांट कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं. निश्चय ही इस मजार की कौमी एकता ऐसे लोगों के गाल पर एक करारा तमाचा है.

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