बलरामपुर: कोरोना काल के तकरीबन दो वर्ष बाद भारतीय उपमहाद्वीप में फैले 51 शक्तिपीठों में से एक देवीपाटन शक्तिपीठ एक बार फिर भक्तों की श्रद्धा और विश्वास से आबाद होगा. सीरिया नदी के तट पर स्थित इस शक्तिपीठ पर शक्तिपीठ पर माता सती का वाम स्कंध सहित पट गिरा था.
बलरामपुर जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर की दूरी पर तुलसीपुर नगर क्षेत्र में स्थित 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ देवीपाटन का इतिहास और पैराणिक मान्यताओं में अपना एक अलग ही स्थान है. इस विख्यात शक्तिपीठ का सम्बन्ध देवी सती, भगवान शिव, गोरखनाथ के पीठाधीश्वर गोरक्षनाथ जी महराज, साहित महाभारत कालीन दान वीर कर्ण से है.
यह शक्तिपीठ सदियों से सभी धर्म-सम्प्रदाय के लोगों के आस्था का केन्द्र रहा है. यहां देश-विदेश से तमाम श्रद्धालु माता के दर्शन को आतें हैं और माता रानी से मुरादें मानते हैं, जो जरूर पूरी होती हैं. यहां पर साल में पड़ने वाली दोनों नवरात्रों में भारी मेला लगता है. खासकर शारदीय नवरात्रि में यहां पर एक पक्षीय मेले का आयोजन होता है.
इस शक्तिपीठ के बारे में मिलने वाले व्यख्यानों और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव की पत्नी देवी सती ने पिता महाराजा दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ में अपने पति के हुए अपमान के कारण यज्ञ कुण्ड में अपने शरीर को समर्पित कर दिया था. जिसके बाद भगवान शिव इतने क्रोधित हुए कि देवी सती के शव को लेकर ताण्डव करने लगे. उनके तांडव से पूरी दुनिया कांप उठी और तांडव देखकर सभी देवताओं सहित तीनों लोकों में हाहाकार मच गया. देवताओं के आग्रह पर भगवान विष्णु ने भगवान शंकर के क्रोध को शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर को छिन्न भिन्न कर दिया.
इस दौरान देवी सती के शरीर का भाग जहां-जहां पर गिरा वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई. पैराणिक मान्यताओं के अनुसार तुलसीपुर क्षेत्र में जहां आज यह मंदिर स्थित वहीं पर ही देवी सती का वाम स्कंध सहित पट गिरा था. यही कारण है कि इस स्थान का नाम देवीपाटन पड़ा और यहां विराजमान देवी मां पाटेश्वरी के नाम से विख्यात हुईं.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मां पाटेश्वरी के परम भक्त और सिद्ध महात्मा श्री रतननाथ जी महराज हुआ करते थे. वह अपनी सिद्ध शक्तियों की सहायता से एक ही समय में नेपाल राष्ट्र के दांग चौखड़ा व देवीपाटन में विराजमान मां पाटेश्वरी की एक साथ पूजा किया करते थे. उनकी तपस्या व पूजा से प्रसन्न होकर मां पाटेश्वरी ने उन्हें यह वर दिया कि श्रद्धालुओं द्वारा जब भी मेरी पूजा की जाएगी, लेकिन यहां पर आपको आने की जरूरत नहीं है. अब बस आपकी सवारी आएगी.