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बलरामपुर: मां-बेटी ने संघर्ष कर अपनी और कई गांवों की बेटियों की बदल दी जिंदगी

जहां पूरे देश में अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है, वहीं कुछ ऐसी महिलाएं हैं जिन्होंने महिला समाज के उत्थान के लिए काफी योगदान दिया है. बाराबंकी की माधुरी और उनकी मां उमा ने संघर्ष से सिर्फ अपनी ही नहीं, बल्कि और भी लोगों की जिंदगियों को संवारा है. आइये जानते हैं इनकी कहानी...

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माधुरी ने 100 से अधिक लड़कियों को बनाया साक्षर

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Published : Mar 9, 2020, 3:32 AM IST

बलरामपुर: 'कहते हैं जितना बड़ा बदलाव, उतना ही बड़ा संघर्ष' सफलता के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है. उसे मुकाम तक ले जाने के लिए पल-पल संघर्ष करना पड़ता है. ऐसी ही कुछ कहानी 21 साल की माधुरी और उनकी 40 वर्षीय मां उमा की है.

माधुरी जब 2 साल की थी तो उनके सिर से पिता का साया उठ गया. मुफलिसी का दौर ऐसा कि कभी-कभी तो भोजन तक नहीं मिलता था. घर में मां के अलावा 3 भाई-बहन थे. गांव का माहौल ऐसा कि बेटियों के पैरों में मान लो बेड़ियां बांध रखी गई हों. माधुरी जब 14 साल की हुई तो उन्हें जिले में तैनात महिला सामाख्या की कार्यकर्ताओं ने नया रास्ता दिखाया.

माधुरी की मां उमा महिला सामाख्या से जुड़ीं और खुद को अपने पैरों पर खड़ा करने के साथ-साथ बेटियों को पढ़ाने का बीड़ा भी उठाया. गांव वाले बोलियां बोलते, ताने मारते, लेकिन यह पांव नहीं रुके और माधुरी ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. आज माधुरी के जरिए सदर ब्लाक के बरईपुर ग्राम सभा के मजरा सहिबारा में 100 से अधिक महिलाओं और बेटियों ने न केवल लिखना-पढ़ना सीखा, बल्कि आज के आधुनिक समाज में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं.

माधुरी ने लड़कियों को बनाया साक्षर.

2006 में उठ गया थापिता का साया
माधुरी बताती है कि जब वह 2 साल की थी. तब उनके सिर से पिता का साया उठ गया. परिवार की स्थिति ठीक नहीं थी. मेरे अलावा घर में छोटा भाई और दो बहनें भी थीं. जिनकी जिम्मेदारी मां के कंधों पर आ गई. साल 2006 में महिला सामाख्या की कार्यकर्ताएं गांव में पहुंचीं तो बेटियों को पढ़ाने-लिखाने और आगे बढ़ाने की सलाह दी.

महिला सामाख्या की कार्यकर्ताओं ने पढ़ने के लिए किया प्रेरित
माधुरी बताती हैं कि जब महिला सामाख्या के लोगों ने पूछा तो मैंने बताया कि उनके पास पैसे नहीं हैं, जिससे वह हमें पढ़ा सकें. महिला सामाख्या की कार्यकर्ताओं ने हम बहनों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया. एक दुकान खुलवाई, जड़ी-बूटी बनाने की ट्रेनिंग दी, जिससे न केवल परिवार की माली हालत सही हुई, बल्कि हम लोगों की पढ़ाई भी आगे बढ़ सकी.

गांव की बेटियों को माधुरी बना रही साक्षर
इसके बाद हमने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा. आज मैं 21 साल की हो चुकी हूं और मैंने स्नातक तक की पढ़ाई कर ली है. आगे पढ़ने के साथ-साथ मैंने अपने पैसे से न केवल स्कूटर लिया है, बल्कि अन्य तमाम गुण भी सीखें हैं. आज मैं अपने गांव और आसपास के गांवों की बेटियों को साक्षर बनाती हूं.

100 से अधिक महिलाओं को पढ़ना-लिखना सिखाया
दुवरिया, भीखपुर, बेलवा, चिरैया और आसपास के अन्य गांवों में महिलाओं को अक्षर ज्ञान कराकर लिखने का तरीका बताया. जहां पहले इन गांवों में महिलाओं को अक्षर ज्ञान तक नहीं था. वहीं अब 100 से अधिक महिलाएं पढ़ना-लिखना सीख चुकी हैं.

लड़कियों को ही नहीं, बल्कि महिलाओं को भी पढ़ाती हैं
माधुरी बताती है कि साल 2013 से 2015 तक 14 से 18 साल की 40 लड़कियों को मैंने पढ़ाया है. इसके बाद दुवरिया ग्राम सभा में 45 महिलाओं को साक्षर बनाया है. इन महिलाओं को देख दूसरे गांव की महिलाएं भी आगे आ रही हैं. अब ग्रामीण जागरूक होकर बेटियों का विवाह भी 18 साल पूरा होने के बाद ही कर रहे हैं.

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