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मौलवी अहमदुल्लाह शाह को जिंदा नहीं पकड़ पाई ब्रिटिश सेना, चांदी के 50 हजार टुकड़े का था इनाम

फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह इतने बहादुर थे कि ब्रिटिश सेना कभी इन्हें जिंदा नहीं पकड़ पाई. इतना ही नहीं उनके ऊपर 50,000 चांदी के टुकड़े भी इनाम रखा गया था. मौलवी अहमदुल्लाह शाह के नाम पर आज अयोध्या के धन्नीपुर गांव में एक विशाल मस्जिद और कम्युनिटी सेंटर का निर्माण भी इंडोगल्फ इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन के द्वारा कराया जा रहा है.

Maulvi Ahmadullah Shah Faizabadi
मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी.

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Published : Aug 15, 2021, 5:54 PM IST

अयोध्याःआज पूरा देश आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है. इस आजादी को पाने की कितनी बड़ी कीमत आजादी के दीवानों को चुकानी पड़ी. यह तब पता चलता है जब वर्तमान से हम अतीत की ओर जाते हैं. इतिहास के पन्नों में दर्ज शहादत की स्वर्णिम कहानी को समझते हैं. ऐसे ही एक आजादी के दीवाने की कहानी आज हम आपको बता रहे हैं जो न सिर्फ देश की आजादी के लिए आखरी दम तक लड़ते रहे, बल्कि हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक भी रहे.

इनकी बहादुरी के किस्से इतने आम हैं कि वर्तमान में फैजाबाद शहर के लोग बड़ी इज्जत से इन्हें याद करते हैं. तब के फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह इतने बहादुर थे कि ब्रिटिश सेना कभी इन्हें जिंदा नहीं पकड़ पाई. इतना ही नहीं उनके ऊपर 50,000 चांदी के टुकड़े भी इनाम रखा गया था. फिर भी आखरी सांस तक इन्हें कोई जिंदा पकड़ नहीं सका और आजादी पाने की चाहत में अपनों के विश्वासघात में ही इनकी शहादत हो गई.

वक्फ मस्जिद सराय पुख्ता की बिल्डिंग.

अहमदुल्लाह शाह फैजाबाद के मौलवी के रूप में प्रसिद्ध, 1857 के भारतीय विद्रोह के प्रमुख व्यक्ति थे. मौलवी अहमदुल्लाह शाह को विद्रोह के लाइटहाउस के रूप में जाना जाता था. अहमदुल्ला का परिवार हरदोई प्रांत में गोपामन के मूल निवासी थे. उनके पिता गुलाम हुसैन खान, हैदर अली की सेना में एक वरिष्ठ अधिकारी थे. अहमदुल्लाह का मूल स्थान अवध में फैजाबाद था और वे सब्जी मंडी के सराय पोख्ता में रहते थे. जो अब सराय पोख्ता मस्जिद के नाम से जानी जाती है. मौलवी को ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह और साजिश के आरोप में मौत की सजा सुनाई गई थी. सजा को बाद में आजीवन कारावास में बदल दी गई थी.

इसी बिल्डिंग में रहते थे मौलवी अहमदुल्लाह शाह.

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10 मई 1857 को विद्रोह के विस्फोट के बाद, आजमगढ़, बनारस और जौनपुर के विद्रोही सिपाही 7 जून को पटना पहुंचे. उन्होंने अंग्रेजी अधिकारियों के बंगलों पर हमला किया. एक बार जब विद्रोहियों ने शहर पर कब्जा कर लिया तो उन्होंने सरकारी खजाने पर कब्जा कर लिया. वे जेल की ओर बढ़े और मौलवी अहमदुल्ला और अन्य कैदियों को मुक्त कर दिया. 6 मार्च 1858 को अंग्रेजों ने एक प्रतिष्ठित ब्रिटिश सेना के अधिकारी सर कॉलिन कैंपबेल के नेतृत्व में फिर से लखनऊ पर हमला किया. विद्रोही सेना का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया था. अंग्रेजों द्वारा लखनऊ के कब्जे के साथ विद्रोहियों ने फैजाबाद की ओर जाने वाली सड़क के माध्यम से 15 और 16 मार्च को भाग लिया. लखनऊ के पतन के बाद, मौलवी ने अपना आधार शाहजहांपुर, रोहिलखंड में स्थानांतरित कर दिया. शाहजहांपुर में, नाना साहिब और खान बहादुर खान की सेना में मौलवी शामिल हो गए. 15 मई 1858 को विद्रोहियों और जनरल ब्रिगेडियर जोन्स की रेजिमेंट के बीच भयंकर लड़ाई हुई. दोनों पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन विद्रोहियों ने अभी भी शाहजहांपुर को नियंत्रित किया था.

इंडोगल्फ इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन का लेआउट.

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मौलवी शाहजहांपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाकर अंग्रेजों की नाक में दम करते रहे. अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने और मार देने की कई साजिशें रचीं मगर सबमें असफल रहे. बाद में उन्होंने उनके सिर की कीमत रखी पचास हजार रुपये. इसी कीमत के लालच में शाहजहांपुर जिले की पुवायां रियासत के विश्वासघाती राजा जगन्नाथ सिंह के भाई बलदेव सिंह ने 15 जून, 1858 को तब धोखे से गोली चलाकर मौलवी की जान ले ली, जब वे अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में मदद मांगने उसकी गढ़ी पर गए थे. उसने मौलवी का सिर कटवाकर रूमाल में लिपटवाया और शाहजहांपुर के कलेक्टर को सौंपकर मुंहमांगी कीमत वसूल ली. कलेक्टर ने उस सिर को शाहजहांपुर कोतवाली के फाटक पर लटकाकर प्रदर्शित किया ताकि जो लोग उसे देखें, आगे सिर उठाने की जुर्रत न करें. मगर कुछ देशभक्तों ने जान पर खेलकर मौलवी का सिर वहां से उतार लिया और पास के लोधीपुर गांव के एक छोर पर पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ दफन कर दिया. वहीं दूर खेतों के बीच आज भी मौलवी की मजार है.

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