अमेठी: एक समय वो था जब लोगों को सावन का इंतजार होता था. सावन का महीना आते ही गांव की गलियों से लेकर शहर तक पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे. महिलाएं झूला झूलती थीं और कजरी के गीत गाया करती थीं. 'झूला पड़ा कदम की डारि, झूले ब्रिज के नर-नारी अरे रामा पेंग बढ़ावे राधा प्यारी, पिया को लागे प्यारी रे हारी' कजरी के गीत गाकर महिलाएं मनोरंजन किया करती थीं.
सावन में कजरी के गीत हुए गायब समय धीरे-धीरे बदलता गया और सावन के महीने में गाये जाने वाला कजरी कहीं गुम सा हो गया. सावन का महीना चल रहा है. पांच अगस्त को नाग पंचमी का त्योहार मनाया जाएगा, लेकिन अब तक न पेड़ों पर झूले पड़े और न ही कहीं कजरी के गीत सुनाई दे रहे हैं.
सावन के महीने में गाये जाने वाला गीत कजरी और पेड़ों पर से गायब होते झूले को लेकर जनपद के साहित्यकार जगदीश पीयूष का कहना है कि कजरी और सावन के गीतों को याद करके अब हम लोग रोमांचित हो जाते हैं. 'मोहे सावन में झूला झूला दा, मुंदरी गढ़ा दिया ना अबकी सावन में मुंदरी गढ़ऊबे, उंगरी सजायी देबे ना'.
क्या कारण है कि अब कजरी के गीत नहीं सुनाई देते
यह त्योहार मुख्य रूप से लड़कियों का था. सबसे पहले भगवान शंकर की पूजा पार्वती ने हरियाली तीज पर की थी तब से ये परम्परा चली आ रही है. शादी के बाद लड़कियां सावन में जब ससुराल से पहली बार मायके आती थीं, तब झूला झूलती थीं. सहेलियों के साथ कजरी के गीत गाकर मनोरंजन किया करती थीं.
किसान खेतों में धन बोने के बाद अपने खाली समय को बहुत ही संजीदे तरीके से अपने उल्लास में शामिल करता था. मगर आज के समय में पुराने जमाने में जो कजरी के गीत सुनाई पड़ते थे वह अब नहीं सुनने को मिलते. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि लोगों के पास अब समय नहीं है. इंसान सिनेमा, टीवी, मोबाइल में व्यस्त हो चुका है. पहले के समय में मिलने वाले गांव के कुएं से पानी खींचने के लिए एक नहन होती थी, जिससे उस नहन से पेड़ों पर झूले डाले जाते थे आज वो नहन गायब है.
कजरी क्या है?
कजरी पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध लोकगीत है. इसे सावन के महीने में गाया जाता है. अर्थशास्त्री गायन की विधा के रूप में भी विकसित हुआ और इसके गायन में बनारस घराने का खास दखल है. कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन, विरह-वर्णन तथा राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिकतर मिलता है. इसमें शृंगार रस की प्रधानता होती है. उत्तर प्रदेश में कजरी जाने का प्रचार खूब पाया जाता है.