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लखनऊ: रोशनी के पर्व दिवाली पर लोगों के घरों को रौशन करने वाले कुम्हारों का भविष्य अंधेरे में - diwali festival of lights

दिवाली पर लोगों के घरों को रोशन करने का जिम्मा कुम्हारों ने उठा रखा है लेकिन उनका भविष्य खुद अंधेरे में है. ऐसा इसलिए क्योंकि मिट्टी के सामान के दाम लोग मिट्टी के दाम के रूप में देने का मन बना चुके हैं. रोशनी के त्योहार दिवाली पर दूसरों के घरों में ज्ञान और समृद्धि का प्रकाश फैलाने वाले कुम्हार आधुनिकता के इस दौर में भी अज्ञानता और विपन्नता के अंधियारे में जीवन बसर करने को मजबूर है.

अंधेरे में कुम्हारों का भविष्य.

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Published : Oct 23, 2019, 4:42 PM IST

लखनऊ: राजधानी के बाजारों में दिवाली पास आते ही शहर भर में अलग उत्साह देखने को मिल रहा है. लोग दिवाली के तैयारियों में लगे हुए हैं और घरों का रंग रोगन करा रहे हैं. लोगों के घरों पर सजाए जाने वाले दियों को बनाने का जिम्मा कुम्हारों ने उठा रखा है. दीपक का ढ़ेर लगा है और नया गढ़ा भी जा रहा है. मिट्टी के दीपक बनाकर रोशनी फैलाने वाले कुम्हार मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं, लेकिन परिणाम वही है कि बस वह अपना पेट भर पा रहा है. जो भी कमाते हैं वह सब खाने में खर्च हो जाता है. उनके पास कोई जमा पूंजी नहीं है.

अंधेरे में कुम्हारों का भविष्य.
कुम्हारों के जीवन में नहीं हुआ कोई बदलावइस रोजगार से जुड़े लोगों ने भले ही अपनी जिंदगी इस कारोबार के सहारे काट दी हो, लेकिन अब अपने बच्चों को इससे दूर कर रहे हैं. क्योंकि इस कारोबार से उनके जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया. पहले भी खंडहर सा घर था और आज भी है. यही कारण है कि वह इस धंधे से अपनी आने वाली पीढ़ी को दूर कर रहे हैं.

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हैरानी की बात तो यह है कि जिस कारोबार से वह सबको रोशन कर रहे हैं, उसी कारोबार ने उन्हें अंधेरे में छोड़ दिया है. लखनऊ के नंद गांव में मिट्टी का कारोबार आज भी जिंदा है. कई वर्षों से नंद गांव में मिट्टी से विभिन्न प्रकार के सामान को बनाने वाले कुम्हार जाति के लोग मंदी के दौर से गुजर रहे हैं. इन लोगों का पुश्तैनी और परंपरागत कारोबार घाटे में है.

मिट्टी के कारोबार से जुडे़ हैं 20 परिवार
नंद गांव में मिट्टी के कारोबार से 20 परिवार जुड़े हैं. बांसघाट के पास दुजरा में भी 20 कुम्हार परिवार ऐसे हैं जो अभी मिट्टी का कारोबार करते हैं. परिवार के लोग चाक पर मिट्टी को गढ़कर दीपक बनाते हैं. परिवार की महिलाएं बाजार में सामान को बेचती हैं. काफी समय पहले फैजाबाद से आये ये लोग नंद गांव में बस गये तभी से इस रोजगार से जुड़े हैं. लेकिन पेट भरने के अलावा कुछ कर न सके. उनकी अभाव भरी जिंदगी की गवाह उनकी झोपड़ियां हैं, जिसमें वो रहते हैं.

जानें क्या कहते हैं कुम्हार
कुम्हार मो. ताहिर बताते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस पुश्तैनी काम में उनको मुनाफा तो नहीं होता, लेकिन उनका दिल भी गवारा नहीं करता. जो काम पीढ़ी दर पीढ़ी उनके परिवार में लोग करते आ रहे हैं, उसे कैसे छोड़ दें. कुम्हार न चाहते हुए भी इस परंपरा को आगे बढ़ाने का जिम्मा उठा रहे हैं या यूं कहें अपनी जिम्मेदारियों को ढो रहे हैं.

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अब हालात ऐसे हो चले हैं कि मिट्टी के दिये बनाने के लिए भी मिट्टी बाजार से खरीदनी पड़ती है. इसके बाद बाजारों में बिकने वाले दियों के खरीददार भी मिट्टी के भाव में ही दिये खरीदने का मन बनाए हुए हैं. जिसकी वजह से इन कुम्हारों के जीवन में अंधेरा छाया रहता है.

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