उदयपुर.हल्दीघाटी का नाम सुनते ही मन में त्याग, बलिदान और स्वाभिमान की चिंगारी कौंधती है. ये वही पवितोपावन धरती है जहां वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने ऐसा युद्ध रचा जिसने मुगलों के गुमान को मटियामेट कर दिया (Battle Of Haldighati). बादशाह अकबर को अंदाजा नहीं था कि राजपूतों की वीर सेना उनके दांत खट्टे कर देगी. हल्दी घाटी मरुभूमि को खुद पर नाज करने का अभूतपूर्व मौका प्रदान करती है. 18 जून 1576 आज ही के दिन हल्दीघाटी की भूमि पर ऐसा भीषण संग्राम हुआ कि दुनिया अवाक रह गई. उस ताकत को ललकारा गया जो पूरे भारत को मुठ्ठियों में भींचने का प्रण कर चुकी थी. महाराणा के इस रण में उनके साए की तरह खड़े रहे ग्वालियर नरेश राम शाह तोमर.इन्होंने राजपूताना शान के लिए अपने साथ अपने बेटों और पौत्र को भी न्योछावर कर दिया. महाराणा प्रताप की गौरवगाथा का एक अहम अध्याय है ग्वालियर के राजा राम शाह तंवर (Raja Ram Shah Of Gwalior). इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा और श्रीकृष्ण जुगनू ने इतिहास के पन्नों को पलट उस दौर की स्थितियों परिस्थितियों को जीवंत कर दिया.
हरेक पल था अहम: 18 जून 1576 का सूरज संग्राम की रणभेरी के साथ उदय हुआ. मेवाड़ के प्रताप ने हल्दीघाटी के आकार और प्रकार को देखते हुए रणनीति बनाई और उसका ही नतीजा था कि मुगलों की सेना एक दिन तक मॉलेला कैंप में चिपकी हुई पड़ी रही. ये भी कम हैरत की बात नहीं थी कि जिन मुगलों ने 4 साल की लंबी तैयारी कर खाका तैयार किया वही आक्रमण का साहस नहीं जुटा पा रही थी. प्रताप वो खौफ, वो डर और संशय को भांप गए और उन्होंने स्वयं मोर्चा संभाल लिया. उस भीषण गर्मी में भी राणा के रणबांकुरे डटे रहे. इन्हीं में से एक थे राम शाह तोमर. ग्वालियर के राजा जो अपने परिवार संग तपती रणभूमि में अपना रणकौशल दिखाते रहे.
राजपूतानी शान पर मर मिटी तीन पीढ़ी:इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा उस दिन की कहानी मुंतखब उल तवारीख( जिसमें बदायूं के अब्दुल कादिर बदायूनी ने हल्दीघाटी का आंखों देखा हाल लिखा है) के जरिए और अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल की लेखनी के माध्यम से जाहिर करते हैं. कहते हैं- अबुल फजल ने लिखा है-माथे की खोपड़ी का खून उबलने लगा उस दिन ऐसी प्रचंड गर्मी थी. शर्मा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहते हैं सूर्यास्त से लगभग 1 घंटे पहले युद्ध समाप्त हो गया .करीब 7 घंटे चले इस भीषण युद्ध में गर्मी भी थी और उस तपिश के कारण बारिश भी आई. वो मंजर बड़ा भयावह था. इस भीषण युद्ध में पूरी घाटी शवों से पट गई. बरसात के पानी संग रक्त बहा और एक जगह इकट्ठा हो गया. आज हम उसे रक्तताल के नाम से जानते हैं. इसी रक्त ताल में महाराणा करण सिंह ने राम शाह तोमर, उनके बेटे शालिवाहन शाली वाहन ,भवानी सिंह और प्रताप सिंह के साथ ही शालीवाहन के 16 साल के पुत्र बलभद्र सिंह का भी रक्त बहा. 1624 में मेवाड़ के महाराणा करण सिंह ने शिलालेख लगवाया. दो छतरियां बनवाई, जो आज भी हल्दीघाटी में उस महान बलिदान की याद दिलाती है. ये एक पीढ़ी के एक साथ राजपूतानी शान के लिए मर मिटने की दास्तां सुनाती है.
रामशाह का परामर्श आया था काम: राम शाह की सलाह को शालीनता से महाराणा (Maharana Pratap In Haldighati) ने शिरोधार्य किया था. युद्ध कौशल में उनका लोहा सब मानते थे. उन्होंने ही रणनीति गढ़ी दुश्मनों को घेरने की! फैसला लिया गया कि मुकाबला मांडल के पास खुले में नहीं पहाड़ियों के संकरे रास्ते पर होगा. राम शाह के तजुर्बे से सब वाकिफ थे. महाराणा सांगा के समय से ही वो मेवाड़ में अपनी सेवाएं दे रहे थे. मुगलों की बढ़ती ताकत के सामने उन्हें ग्वालियर छोड़ना पड़ा था. 18 साल तक उन्होंने कड़ा संघर्ष किया. उनके पास विकल्प था लेकिन उन्होंने अकबर के सामने घुटने नहीं टेके और मेवाड़ को अपनी कर्मभूमि बना लिया. आक्रमणकारियों के सामने सीना चौड़ा कर खड़े रहे. उनकी ताकत, समझबूझ और शौर्य को देखते हुए ही राजा राम सिंह तोमर को शाहों के शाह की उपाधि चित्तौड़गढ़ की शान राणा सांगा ने दी और उनके नाम संग शाह जुड़ गया. वाकई शाह ने हल्दीघाटी पर जिस जज्बे के साथ अपने साथ बेटों और पौत्र को न्योछावर कर दिया वो शाहों का शाह ही कर सकता था.