टोंक. राजस्थान जैसे गर्म प्रदेश में गर्मियों में मिट्टी के बर्तनों का अपना महत्व है और बात अगर गरीबों के फ्रिज मिट्टी से बनी मटकियों कि की जाए तो गर्मियां आने के साथ ही राजस्थान के हर घर तक पंहुचने वाली मटकिया बनाने में कुम्भकार जुट जाते है. इन दिनों टोंक में हर कुम्भकार मटकियों के निर्माण में जुटे है, पर महंगाई की मार का असर अब मटकियों और मिट्टी के बर्तनों के निर्माण पर भी पड़ रहा है.
शुरू हुआ गरीबों के 'फ्रिज' बनाने का सिलसिला कुम्भकार कजोड़मल बचपन से लेकर आज तक मिट्टी के बर्तन बनाते आए है और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए कुम्भकारी का ही सहारा लिया है. आधुनिकता के चलते भले ही अमीरों के घरों में गर्मियों में ठंडे पानी के लिए मिट्टी की मटकियों की जगह फ्रिज ने अपनी जगह बना ली हो पर कजोड़ का परिवार आज भी गर्मियों के शुरू होने से पहले जुट जाता है. आज के दौर में भी भले ही अब इलेक्ट्रॉनिक चाक का प्रचलन बढ़ गया है. इसके साथ ही आसानी से शहरों में मिट्टी भी नहीं मिलती है. पर आज भी सालों से कई परिवार इस काम में गांव से लेकर शहरों तक जुटे हुए है. यह अलग बात है कि अब परिवार की वर्तमान और भावी पीढ़ियां इस धंधे में अपना जीवन नहीं तलाशते है.
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कई मायनों में काम आते है मिट्टी के बर्तन...
दरअसल, मिट्टी के बर्तनों की अपनी तासीर है, कि वह गर्मी में भी खाने की चीजों को खराब नहीं होने देते है. वहीं मिट्टी की मटकियों में रखा पानी स्वतः ही भीषण गर्मियों में भी ठंडा होता है. साथ ही इसका अपना स्वाद होता है.
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आखिर कैसे तैयार होते है मिट्टी के बर्तन और मटकिया...
बता दें, कि शहरों और गांवों के आसपास तालाबों से काली मिट्टी को लाया जाता है और उसे सुखाकर बाद में कूटकर बारीक किया जाता है. इसके बाद इसको भिगोकर रखा जाता है. बाद में मिट्टी के चाक पर फिर उसी मिट्टी से कुम्भकार उसे अलग-अलग शेप में डालकर घरेलू कार्यों में काम आने वाले मिट्टी के बर्तन और मटकियों का निर्माण करते है. यह अलग बात है कि अब यह कार्य इनके परिवारों का पूर्ण रूप से पालन पोषण नहीं कर पा रहा है.
मिट्टी की परत, मिट्टी की मटकी, सकोरे, दीपक, करुए, हांडी, मिट्टी का तवा, मिट्टी के खिलौनें, गुल्लक जैसे कई बर्तन आज भी इन कुम्भकरों की दुकानों पर गरीबों की पहली पसंद है. पर जरूरत है इस कला को जिंदा रखने के लिए सरकारी संरक्षण की, जिससे न सिर्फ इनके बनाए बर्तनों से परिवार का पालन पोषण होता रहे. बल्कि यह कला भी जिंदा रहे और प्रकृति का कोई नुकसान भी न हो