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Special: कभी विदेशों तक में जमा ली थी पैठ...आज अपने देश में ही पहचान खो रही देसी कपास - राजस्थान ताजा हिंदी खबरें

देसी कपास के उत्पादन और बिक्री को लेकर श्रीगंगानगर जिले की खास पहचान थी. विदेशों तक में यहां की देसी कपास की डिमांड रहती थी. लेकिन अब विदेश क्या अपने ही देश में यह पहचान खोनी लगी है. अभी के दिनों में नहरबंदी के कारण देसी कपास की बिजाई नहीं हो पाती, जिससे धीरे-धीरे कपास की खेती यहां पर कम होती जा रही है. देखें खास रिपोर्ट...

cotton cultivation in Sriganganagar, Desi cotton of Sriganganagar
विदेशों में अपनी पैठ बनाने वाली देसी कपास अपने देश में खो रही है पहचान

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Published : Nov 26, 2020, 5:21 PM IST

श्रीगंगानगर. एक समय था जब देश में ही नहीं, विदेशों तक में श्रीगंगानगर जिले की कपास की खास पहचान थी. गुणवत्ता में अव्वल यहां की देसी कपास को जापान खरीदने को लालायित रहता था. वहीं इसका उपयोग चिकित्सा क्षेत्र में होने के कारण भी इसकी पूछ रहती थी, लेकिन अब वह बात नहीं रही है. विदेश क्या, देश में भी यहां की कपास अपनी पहचान खोने लगी है. देसी कपास उत्पादन में पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण बिजाई के समय ली जाने वाली नहरबंदी है. इस कारण देशी कपास की बिजाई होने से रह जा रही है.

विदेशों में अपनी पैठ बनाने वाली देसी कपास अपने देश में खो रही है पहचान

देसी कपास के उत्पादन में श्रीगंगानगर जिले की कभी धाक रहती थी, लेकिन अब गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में पैदा होने वाली देसी कपास ने उसे हमारा अतीत बना दिया. देसी कपास के उत्पादन पर सर्वाधिक असर नहर बंदी ने डाला है. पिछले कुछ वर्षों पर नजर डालें तो पंजाब में बंदी मार्च-अप्रैल में ही की है.

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देसी कपास की बिजाई का उपयुक्त समय 1 मार्च से 7 मई तक होता था और अमूमन यही समय नहर बंदी का रहा है. नहरबंदी मार्च-अप्रैल में लिए जाने का नतीजा यह हुआ कि हमारे यहां देसी कपास की बिजाई का क्षेत्र साल दर साल घटता गया और एक समय ऐसा आया कि देसी कपास की बुवाई नाम मात्र की रह गई. यही कारण है कि अब खेतों से लेकर धान मंडी तक देसी कपास कहीं-कहीं नजर आती है.

हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक दशक पहले देसी कपास की बिजाई 20 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में होती थी, जो 2020 आते-आते घटकर मात्र 3156 हेक्टेयर तक रह गई.

जापान खरीदता था देसी कपास

एक जमाना था जब हमारी देसी कपास के सुनहरे दिन थे. गुणवत्ता में सर्वश्रेष्ठ होने के नाते जापान इसका प्रमुख खरीदार था. वहां ठंड से बचने के लिए देसी कपास की परत घर की दीवारों में लगाई जाती है. नहरबंदी के कारण हमारे यहां देसी कपास का रकबा घटा तो जापान गुजरात, आंध्र प्रदेश सहित अन्य कपास उत्पादक राज्यों से इसका आयात करने लगा. हमारे यहां उत्पादित देसी कपास का चिकित्सा क्षेत्र में भी कोई सानी नहीं था. गाज पट्टी और सर्जिकल कॉटन के रूप में हमारी देसी कपास को देश में ही नहीं विदेशों में भी प्राथमिकता दी जाती रही है.

इसकी मुख्य वजह है कि यहां की देसी कपास में सोखने की ताकत सबसे ज्यादा है. चोट लगने और ऑपरेशन के दौरान यहां की देसी कपास से बनी गाज पट्टी और सर्जिकल कॉटन का उपयोग किया जाता है. रजाई और गद्दों की भराई में भी यहां की देसी कपास को पूरा सम्मान मिला. इसलिए कहावत भी प्रचलित रही है कि रजाई में 4 किलो देसी हुई तो फिर पाले का क्या काम.

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उत्पादन घटने से कॉटन इंडस्ट्री फेल हो गई और हजारों लोग बेरोजगार होकर पलायन कर गए. नहर बंदी के कारण कपास पट्टी बर्बाद हुई है. देसी कपास की बुवाई का रकबा जिस तेजी से घटा वह सबके सामने हैं.

3164 हेक्टेयर तक रह गया रकबा

वर्ष 2010 में बिजाई क्षेत्र 26962 हेक्टेयर था, तो वहीं 2011 में 19750 हेक्टेयर रह गया. फिर 2012 में देसी कपास का रकबा बढ़कर 33819 हुआ तो 2013 में 23337 हेक्टेयर पर आ गया, लेकिन 2014 के बाद जो गिरावट आई उसके बाद फिर देशी कपास की बिजाई नाम मात्र की ही होने लगी है. 2014 में 8596 हेक्टेयर बुवाई हुई तो 2015 में और ज्यादा घटकर 3568 हेक्टेयर रह गया. 2016 में 7154 हेक्टेयर 2017 में 3588 हेक्टेयर रह गया. 2018 में 3267 हेक्टेयर तो 2019 में 3359 हेक्टेयर बुवाई हुई. मगर 2020 आते आते यह रकबा घटकर 3164 हेक्टेयर तक रह गया है.

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