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राजसमंद: चारभुजा नाथ मंदिर में मनाई गई जलझूलनी एकादशी, भक्तों का प्रवेश रहा निषेध

राजसमंद के गढ़बोर स्थित चारभुजा नाथ मंदिर में कोरोना गाइडलाइन की पालना करते हुए जलझूलनी एकादशी मनाई गई. हर बार की तरह इस बार भी शोभा यात्रा निकाली गई, लेकिन इस बार सीमित लोग ही मौजूद रहे. मंदिर के इतिहास में पहली बार हुआ है, जब जलझूलनी एकादशी पर भक्तों का प्रवेश निषेध हुआ है.

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कोरोना काल के बीच चारभुजा मंदिर में मनाई गई जलझूलनी एकादशी

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Published : Aug 29, 2020, 6:39 PM IST

राजसमंद. देश भर में जलझूलनी एकादशी का पावन पर्व हर्ष उल्लास के साथ मनाया जा रहा है. राजसमंद जिले के गढ़बोर स्थित भगवान चारभुजा नाथ मंदिर में भी जलझूलनी का पावन पर्व हर्षोल्लास से मनाया गया, लेकिन इस बार मंदिर में भक्तों का प्रवेश निषेध रहा. हर साल जहां लाखों की संख्या श्रद्धालु देश के कोने कोने से चारभुजा मंदिर पहुंचते हैं, लेकिन इस बार कोरोना महामारी की वजह से सरकार की गाइडलाइन का पालन करते हुए जिला प्रशासन ने चारभुजा क्षेत्र में 2 दिन का कर्फ्यू लगाया है.

कोरोना काल के बीच चारभुजा नाथ मंदिर में मनाई गई जलझूलनी एकादशी

ईटीवी भारत की टीम भी राजसमंद जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर स्थित भगवान चारभुजा नाथ मंदिर पहुंची. जहां कोरोना काल में किस तरह से इस बार जलझूलनी का पर्व मनाया जा रहा है, उसको जानने की लिए मंदिर के पुजारियों से बातचीत की. पुजारियों ने बताया कि भगवान श्री चारभुजा नाथ के हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी वैवाण यात्रा निकाली गई, लेकिन कोरोना की गाइडलाइन की पालना करते हुए सीमित संख्या में लोग ठाकुर जी के बालस्वरूप को सोने की पालकी में विराजित कर सादगी पूर्ण तरीके से शोभा यात्रा निकाली, जो कस्बे के मुख्य मार्गों से होते हुए दूध तलाई पहुंची.जहां मंदिर के सेवादारों द्वारा दूध तलाई में ठाकुर जी के बालस्वरूप को स्नान करवाया गया.

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इसके बाद फिर से ठाकुर जी निज मंदिर पहुंचे. मंदिर के पुजारी ने बताया कि प्रभु को आज के अवसर पर विशेष श्रृंगार धराया गया है. उन्होंने बताया कि 5 हजार 2 सौ 85 वर्ष पुराना यह मंदिर पांडवों द्वारा स्थापित किया गया है, लेकिन मंदिर के इतिहास में पहली बार श्रद्धालुओं का प्रवेश निषेध हुआ है. हजारों वर्ष पुराना चारभुजा नाथ का मंदिर देश और विदेश में विख्यात है.

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बता दें कि मंदिर के पुजारी गुर्जर समाज के 500 से अधिक परिवार हैं, जिनमें सेवा पूजा ओसरा के अनुसार बटी हुई है. ओसरा की परंपरा कुछ ऐसी है कि कुछ परिवारों का ओसरा जीवन में सिर्फ एक बार आता है तो किसी का 48 से 50 साल में तो किसी का 4 साल के अंतराल में भी आ जाता है. हर अमावस्या को ओसरा बदलता है और अगला परिवार का मुखिया पुजारी बनता है. बताया जाता है कि ओसरा का निर्धारण बरसों पहले गोत्र और परिवारों की संख्या के अनुसार हुआ था, जो अभी भी चला आ रहा है.

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