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यहां जलती नहीं छलनी होती है बुराई, रावण को बंदूक से मारने का है रिवाज

प्रतापगढ़ के खेरोट गांव में रावण को बंदूक से छलनी करने का रिवाज है. यह परंपरा पिछले तीन सौ सालों से चली आ रही है. यहां इस नजारे को देखने के लिए दशहरे पर खेरोट सहित आसपास के गांवों से सैकड़ों लोगों की भीड़ मौजूद रहती है. कुछ ऐसा ही नजारा इस बार भी मंगलवार को देखने को मिला.

custom to shoot ravan, रावन को गोली मारने का रिवाज

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Published : Oct 9, 2019, 1:49 PM IST

प्रतापगढ़.शहर से करीब 10 किमी दूर अरनोद रोड पर स्थित खेरोट गांव में रावण को बंदूक से छलनी करने का रिवाज है. इसी कड़ी में मंगलवार को दशहरे मेले में हजारों की संख्या में लोग रावण को छलनी करने पहुंचे. बता दें कि सदियों पहले शुरू की गई इस परंपरा के तहत दशहरे पर यहां मिट्टी का रावण तैयार किया जाता है. उसके बाद मटके से बने सिर में लाल रंग भर दिया जाता है. गांव के कई लोग रावण के सिर को अपनी बंदूक का निशाना बनाते हैं. इस बार रावण के पुतले पर गांव के चुनिंदा लोगों ने डेढ़ सौ फीट दूर से निशाना साधकर रावण के सिर को उड़ाने का प्रयास किया. इस पुतले को गांव के कारीगर भैरु दास बैरागी ने बनाया था. बैरागी ने बताया कि मिट्टी के रावण का निर्माण करते हुए उसे 41 साल हो गए हैं.

रावण को बंदूक से मारने का है रिवाज

गौरतलब है कि इस बार गांव के रावला चौक स्थित रामजानकी मंदिर से भगवान की शोभायात्रा ढोल नगाड़ो के साथ निकली, जो कि स्कूल प्रांगण में जाकर रुकी. जिसके बाद राम और रावण के बीच संवाद हुआ और तीखे भाले से रावण का नाक भेदन किया गया. इस बार गांव के ठिकाने के वशंज महेन्द्र सिंह सिसोदिया ने रावण के पुतले की नाक को भाले से बींधा.
इसके बाद रावण के पुतले पर गोलियों की बौछार शुरू हो जाती है. जिस व्यक्ति की बंदूक से रावण का सिर को फूटता है, वह इस जीत का सेहरा पहनाता है. लोग उसको कंधे पर उठाकर रावण वध की खुशियां मनाते हैं.

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वहीं गांव के बुजुर्गों ने बताया कि गांव में यह परंपरा 300 सालों से चली आ रही है. यहां पर रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता हैं. ग्रामीणों के अनुसार जहां पर रावण का पुतला बनाया जाता है. वहां पहले लोग फसलें काटकर ढेर लगाते थे. फसल को आग नहीं लगे इसलिए रावण को जलाते नहीं हैं गोलियों से मारते हैं. साथ ही गांव के लोगों ने बताया कि कुछ सालों पहले रावण के सिर को उड़ाने के लिए लोगों में काफी होड़ लगती थी. दशहरे के दिन यहां 50 से ज्यादा बंदूकधारी इकठ्टा हो जाते थे. वहीं अब सरकार की सख्ती और बंदूकों के लाइसेंस कम होने के कारण बंदूकचियों की संख्या में कमी आई है. साथ ही बंदूकों में भरने वाला बारूद भी नकली मिलता है, जिसके कारण कई बार बंदूकें भी नहीं चल पाती हैं.

आपको बता दें कि रावण को प्रथम गोली लगाने वाले कि बोली लगाई जाती है. उसके बाद ग्रामीण बन्दूक की गोलियों से पुतले को छलनी करते हैं. इस भव्य नजारे को देखने के लिए जनसैलाब मौजूद रहता है. खेरोट सहित आस पास के गांव केरवास, झांसड़ी, गंधेर, कुलथाना, बिलेसरी, खतोड़ी, आमलीखेड़ा से हजारों की तादाद में महिला पुरुष इस नजारे के साक्षी बने.

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