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प्रतापगढ़ में 100 साल पुरानी परंपरा, होली पर यहां रंग लगाने की जगह होता है 'गैर नृत्य'

जहां देशभर में होली धूमधाम से मनाई जा रही है. वहीं दूसरी ओर प्रतापगढ़ जिले में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा का निर्वाह करते हुए होली के अगले दिन धुलंडी पर रंग नहीं खेला जाता है. यहां होली के 13वें दिन रंग तेरस का पर्व मनाया जाता है. लेकिन यहां धुलंडी पर पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर गैर नृत्य करने की परंपरा है.

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होली पर यहां रंग लगाने की जगह होता है 'गैर नृत्य'

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Published : Mar 10, 2020, 5:13 PM IST

प्रतापगढ़. देशभर में होली के अगले दिन रंगों का पर्व धुलंडी मनाया जाता है, लेकिन आदिवासी बाहुल्य प्रतापगढ़ जिले में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा का निर्वाह करते हुए होली के अगले दिन धुलंडी पर रंग नहीं खेलता. पूर्व राजघराने में शोक के चलते होली के 12 दिन बाद रंग तेरस पर रंगों का पर्व मनाया जाता है.

देश में कई जगहों पर होली मनाने की अलग परंपरा है. प्रतापगढ़ में होली दहन के 12 दिन बाद रंग तेरस पर अलग ही नजारा देखने को मिलता है. जिले भर में होली पर लोक परंपरा के अनुसार गैर नृत्य होता है. इसके साथ ही फूल और गुलाल से होली खेली जाती है. इसमें रंग, गैर नृत्य और आदिवासी संस्कृति का अनूठा समावेश देखने को मिलता है. जिले के धरियावद उपखंड में धुलंडी के दिन ढूंढ़ोत्सव होता है. इसी तरह 12 दिन के बाद अगले दिन खेल खेलकर होली के साथ फेरे लगाए जाते हैं, निकटवर्ती टांडा और मानपुरा गांव में लट्ठमार होली खेली जाती है.

होली पर यहां रंग लगाने की जगह होता है 'गैर नृत्य'

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पारंपरिक वेशभूषा के साथ होता है गैर नृत्य

जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर बारावरदा क्षेत्र में धुलंडी पर पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर गैर नृत्य करने की परंपरा है. ऐसी मान्यता है कि पूरे साल के बीच परिणय सूत्र में बंधे विवाहित जोड़ों को धुलंडी के दिन सज धज कर होली के साथ फिर लगाकर गैर नृत्य करना होता है. ऐसा करने से दांपत्य जीवन में सुख और खुशियां होती है. वहीं साल भर में जिस किसी के घर में मृत्यु हो जाती है वह भी धुलंडी को सात फेरे लेकर शोक खत्म करते हैं. यहां के लोगों का मानना है कि होली के साथ फेरे लेने से साल भर तक व्यक्ति बीमार नहीं होता है और साल भर तक खेतों में फसलें लहराती रहती हैं. इसके साथ ही होली के फेरे लगाकर आदिवासी समाज देश भर में खुशहाली की कामना करता है.

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लोक देवता को खुश करने के लिए मनाया जाता है उत्सव

आदिवासी समाज के रामलाल मीणा ने बताया कि होली दहन के बाद दूसरे दिन राज परिवार में सुख के चलते होली तो नहीं खेली जाती, लेकिन होली दहन के बाद समाज के लोग धुलंडी के दिन होली की भस्म के सात फेरे जरूर लेते हैं. यह एक सामाजिक परंपरा है. इस दौरान होली की भस्म में से आने वाली भविष्य और मौसम की भविष्यवाणी भी समाज के बुजुर्ग करते हैं. वहीं आदिवासी महिलाएं होली को जल्द से ठंडा का लोकगीत गाती हैं. समाज में खुशहाली की प्रार्थना करती है. उसके बाद समाज के युवाओं के साथ गैर नृत्य शुरू हो जाता है. धुलंडी के दिन होली का रंग भले ही ना दिखे, लेकिन पूरे दिन लोक संस्कृति जरूर दिखाई देती है.

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