पाली.जब भी विश्व में राजस्थान की बात की जाती है तो यहां की कला संस्कृति और लोक नृत्य के बारे सुन हर कोई तो रोमांचक हो जाता है. पधारो म्हारे देश और केसरिया बालम जैसे गीतों की मीठी मनवार और घूमर जैसे सादगी भरे नृत्य राजस्थान को एक अलग ही पहचान दिलाते हैं.
पाली की लोककला का एक अभिन्न हिस्सा तेरहताली नृत्य है पढ़ेंःSPECIAL : जोधपुर के प्राचीन मंदिरों को चाहिए बेहतर देखभाल....देवस्थान विभाग के भरोसे हैं भगवान
राजस्थान की ऐसी ही लोककला का एक अभिन्न हिस्सा तेरहताली नृत्य भी राजस्थान को विश्व भर में एक अलग पहचान दिला चुका है. भक्ति गीत के साथ पाली जिले के छोटे से गांव पादरला से शुरू हुई इस लोक कला को आज पूरा विश्व मानता है. हाथ और पैरों में अलग-अलग मजीरे पहन महिलाएं जब भक्ति गीतों पर अपनी प्रस्तुति देती है तो ऐसा एक भी दर्शक नहीं है जो झूम ना उठे.
गांव पादरला से शुरू हुई यह लोककला आजादी के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तेरहताली नृत्य के संस्कृति को पहचाना और 1948 में पहली बार इस लोक कला को उन्होंने दिल्ली में मंच दिया और उसके बाद राजस्थान की यह संस्कृति कब अमेरिका जैसे देश को दीवाना कर गई उस समय का पता भी नहीं चल पाया. आज भी इस संस्कृति को शुरू करने वाले कंकू बाई व गोरमदास की पांचवी पीढ़ी में मीना देवी इस संस्कृति को संजोए हुए हैं और राजस्थान को अपनी पहचान दिल आए हुए हैं और अपने आने वाली पीढ़ी को भी वह इस संस्कृति में पूरा घोल रही है.
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बताया जाता है कि तेरहताली नृत्य राजस्थान के पाली जिले के पादरला गांव से शुरू हुई थी. यहां निवास करने वाली कमांड जाती द्वारा पहले बाबा रामदेव व अन्य लोक देवताओं के कथा वाचन किए जाते थे. इन कथा वाचन के साथ ही महिलाओं अपने हाथ व पैर में मजीरे पहन घरेलू काम करने के तरीकों को नृत्य में बदला गया था. धीरे धीरे कर इस कला में बदलाव आते रहे और यह लोगों को पसंद आया. जिसके बाद यह कला धीरे धीरे कर राजस्थान में फैलने लगी आजादी के समय इस कला का काफी प्रचलन राजस्थान में बढ़ा.
तेरहताली नृत्य करती महिलाएं इसी के चलते देश के आजादी के बाद 1948 में लाल किले पर हुए कार्यक्रम में पहली बार प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाली से इस लोक कला के कलाकारों को वहां पर मंच दिया. उस मंच के साथ ही इस कला को राजस्थान से बाहर निकलने का रास्ता मिला और धीरे-धीरे कर या कला विश्व के कई देशों में फैल गई.
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इस कला को आगे बढ़ा रही पदरला निवासी मीना देवी बताती है कि जिस प्रकार से आधुनिक युग हाईटेक हो रहा है. उसी तरीके से लोक संस्कृतियों को भुला भी जा रहा है. आने वाली युवा पीढ़ी राजस्थान की लोक कला और संस्कृति को अपनाने से कतरा रही है. लेकिन अपनी परंपरा और संस्कृति को जिंदा रखने के लिए कलाकारों को स्वयं ही संघर्ष करना होगा. इसी संघर्ष के तहत वह अपनी बहू शांति देवी को इस कला में निपुण कर रही है. उनके द्वारा राजस्थान व राजस्थान से बाहर किए जाने वाले कार्यक्रमों में अपनी बहू को भी अपने साथ मंच दिलवा रही है. ताकि आने वाली पीढ़ी भी इस तेरहताली नृत्य को सम्मान दिलवा सजे जैसे कि पहली शुरुआत हुई थी.
कथा को गीतों में पिरोकर गीतों की प्रस्तुति देते हैं बाबा रामदेव की कथा से शुरू होकर कृष्ण भक्ति पर होता है समापन:
तेरहताली नृत्य करने वाले मीना देवी व उनके पति मूल दास बताते हैं कि इस कला का उद्गम भी भक्ति गीतों के साथ ही हुआ था. राजस्थान में लोक देवता बाबा रामदेव को हर जाति हर धर्म और हर वर्ग आराध्य मानते हैं. इसी के चलते हर गांव में उनकी कथा का वाचन होता है. कामड़ जाती द्वारा बहुत बेहतर तरीके से लोक देवताओं की कथाओं का वाचन किया जाता हर. इसी के तहत तेरहताली नृत्य में भी शुरुआत बाबा रामदेव की कथाओं से किया जाता है.
राजस्थान को विश्व भर में एक अलग पहचान दिला चुका इस कथा को गीतों में पिरोकर गीतों की प्रस्तुति देते हैं. और उनके साथ महिलाओं की टोली तेरहताली नृत्य करती है. इस तेरहताली नृत्य में अधिकतर महिलाओं द्वारा घर में किए जाने वाले कार्य जैसे की बिलोना, साफ सफाई करना, फसलों को काटना व अन्य कार्य करना दिखाया जाता है. और उन्हीं कार्यों को इस तेरहताली नृत्य में पिरो दिया जाता है. इस नृत्य का समापन कृष्ण भक्ति के साथ किया जाता है. जहां कृष्ण और राधा के प्रेम को दिखाया जाता है.