पाली.राजस्थान के जंगलों में होने वाले जिस सीताफल के पेड़ों को काटकर आदिवासी जलावन के काम में लेते थे. वही सीताफल पाली के आदिवासी समाज की तकदीर संवार रहा है. महिला सशक्तिकरण का उदाहरण तो आप सभी ने देखा होगा. किसी महिला ने अपनी उच्च शिक्षा को छोड़ा, तो किसी ने अपने करोड़ों के पैकेज तो किसी ने अपनी प्रापर्टी बेच दूसरे लोगों के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया. ऐसी कहानियां तो आपने काफी सुनी होगी. इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण पहलू शिक्षा है.
लेकिन आज आपको जिस महिला शक्ति से रूबरू करवाने जा रहे हैं. उनका वास्ता किताबों या स्कूल से दूर-दूर तक नहीं है. इसके बाद भी इनके संघर्ष की कहानी काफी रोचक है. आज इनका संघर्ष ऐसे कदम पर पहुंच चुका है, जिसके चलते आज भारत की कई बड़ी फूड प्रोसेसिंग कम्पनियां इनसे सीधा जुड़ना चाहती हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इनके संघर्ष की सराहना करते नहीं चुके हैं. फिर भी इन महिला शक्ति से मुलाकात इनता आसान नहीं है, जिन परिस्थितियों में ये रहती हैं. वहां का जीवन आसान नहीं है. रोडवेज तो दूर की बात है, वहां संचार के लिए ढंग से नेटवर्क भी नहीं आते हैं. ईटीवी भारत की टीम एक लम्बा सफर तय करके अरावली पर्वतमाला की तलहटी के जंगलों में रहने वाली इन महिलाओं से रूबरू होने पहुंची.
गुलाबी गैंग के नाम से मशहूर हैं ये महिलाएं...
ईटीवी भारत की टीम आपको ऐसी महिला शक्ति से मिलाने जा रही है, जिसे गुलाबी गैंग की उपमा दी गई है. यहां कोई एक या दो महिला नहीं, बल्कि इस गैंग में आदिवासी क्षेत्र की 7 हजार से ज्यादा महिलाएं सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं. पाली जिला मुख्यालय से 135 किमी दूर बाली विधानसभा क्षेत्र का आदिवासी इलाका, जिसके भीमाणा गांव और इसके आस-पास के गांवों में यह सभी महिलाएं रहती हैं. पिछले 10 साल पहले के समय में जाए तो यह क्षेत्र कच्ची शराब के निर्माण और लूटपाट के लिए कुख्यात था. लेकिन यहां रहने वाली महिलाओं ने ऐसी जागरुकता की लहर पैदा की है कि पुरूषों को पीछे छोड़ आज इन महिलाओं ने अपना अलग ही वजूद स्थापित कर लिया है. आज भी आधी रात में भी इस आदिवासी क्षेत्र से गुजरने वाले लोग जब इन महिलाओं के समूह का नाम ले लेते हैं, तो अच्छे-अच्छे लोगों की बोलती बंद हो जाती है.
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पाली के इस आदिवासी क्षेत्र में सर्दी के समय सीताफल काफी तादाद में होता है. यहां पुरुषों को शराब की लत ने जकड़ रखा है. ऐसे में अपना घर और अपने मासूम बच्चों का पेट पालने के लिए यहां की आदिवासी महिलाएं जंगल में होने वाले सीताफल और अन्य फलों को तोड़कर सड़कों पर लाकर बेचती हैं, जिससे इनके घर का गुजारा होता है. उस समय इन महिलाओं को नाम मात्र के पैसे में अपने सीताफल का पूरा टोकरा दलालों को बेचना पड़ता था और वहीं सीताफल शहर में लोगों तक 50 से 80 रुपए प्रतिकिलो की दर पर बिकता था. ऐसे में इन महिलाओं को इस फल से सिर्फ अपने घर में एक वक्त का भोजन करने जितने ही पैसे मिलते थे.
शिक्षा के आभाव में भी पैर नहीं किए पीछे...
शिक्षा की कमी इतनी थी कि ये महिलाएं पैसा भी नहीं गिन पाती थीं. ऐसे में इनको रास्ता दिखाने के लिए एनजीओ सृजन के कार्यकर्ताओं ने इनसे मुलाकात की. इसके बाद कुछ महिलाओं ने इकट्ठा होकर घूमर महिला प्रोडूसर कम्पनी लिमिटेड की स्थापना की. इसमें पहले साल में 300 महिलाएं, जो जंगल से सीताफल इकट्ठा करती थीं, उन्हें शामिल किया गया और सीताफल की सीजन में प्रतिकिलो सीताफल की दर निश्चित कर दी गई. सभी महिलाएं अलग-अलग स्थानों से सीताफल इकट्ठा कर भीमाणा लेकर आती थीं. जो सीताफल का पूरा टोकरा महिलाओं को औने पौने दामों में बेचना पड़ता था. उसके सभी महिलाओं के इकट्ठा होने पर अच्छे दाम मिलने लगे. ऐसे में तीन सालों में इस महिला समूह ने 5 हजार महिलाओं को अपना सदस्य बना लिया.
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इन महिलाओं के पास अब सीताफल काफी मात्र में होने लगा, तो सृजन एनजीओ के माध्यम से उन्होंने भीमाणा में सीताफल का एक प्लांट स्थापित कर लिया. प्लांट में क्षेत्र से इक्कठा हुआ सीताफल लाया जाता और इसका पल्स निकालकर इसे आइसक्रीम कम्पनियों को भेजना शुरू कर दीं. इसके बाद को भाग्य ने जैसे सारे दरवाजे इन महिलाओं के लिए खोल दिए हों. देखते ही देखते इन महिलाओं ने अपना पहचान भारत की कई बड़ी कम्पनियों में बना ली.