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Special : यहां पैरों से रौंदा जाता है रावण का 'अहंकार', 300 साल से चल रही परंपरा...

कोटा में पिछले 300 सालों से एक ऐसी परंपरा का निर्वहन किया (300 year old tradition of Kota) जा रहा है, जो वाकई में जुदा और खास है. ऐसे तो पूरे देश में दशहरा के मौके पर रावण दहन होता है, लेकिन कोटा में बेहद खास अंदाज में दशहरा मनाया जाता है.

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Published : Oct 4, 2022, 6:53 PM IST

कोटा.ऐसे तो देशभर में भगवान राम के रावण पर विजय के पर्व विजयादशमी (Vijayadashami festival of victory) को अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है. कोटा में एक अनूठी परंपरा मिट्टी के रावण बनाने की है. जिसे शहर के किशोरपुरा व नांता इलाके में रहने वाले जेठी समाज के लोग निभाते हैं. जेठी समाज के लोग दशहरे पर पैरों से रौंदकर रावण के अहंकार को तोड़ने का काम करते हैं.

यह परंपरा (Ravana is trampled on feet in Kota) करीब 300 सालों से यहां निभाई जा रही है. इसके पहले अखाड़े में स्थित लिंबजा माता की पूजा की जाती है. मंदिर में पूजा के समय से ही ढोल व नगाड़ों की आवाज के साथ ही रणभेरी भी बजाई जाती है, ताकि युद्ध सा माहौल बन जा जाए. साथ ही रावण की आवाज और उसके अहंकार की हंसी भी माइक के जरिए समाज के लोगों तक पहुंचाई जाती है और फिर रावण के अहंकार को लोग अपने पैरों से कुचलकर लिंबजा माता के जयकारे लगाते हैं. इसके बाद अखाड़ों में मल्लयुद्ध का आयोजन (Wrestling organized in Kota Akharas) होता है.

पैरों से रौंदते हैं रावण का अहंकार...

श्राद्ध पक्ष से शुरू होता है रावण बनाने का काम :जेठी समाज के लोग नांता और किशोरपुरा इलाके में दो से तीन जगह इस तरह की परंपरा का निर्वहन करते हैं. इसके लिए श्राद्ध पक्ष शुरू (Construction of Ravana idol) होते ही रावण बनाने का काम शुरू हो जाता है, जो कि अमावस्या तक पूरा भी हो जाता है. इसके बाद रावण के सिर और मुंह पर गेहूं के जवारे उगाए जाते हैं. वहीं, नवरात्र के 9 दिनों तक मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, जिसे नवमी के दिन खोला जाता है. केवल मंदिर में पुजारी व अन्य एक-दो लोगों को ही दूसरे दरवाजे से प्रवेश की अनुमति होती है. खैर, इस दौरान पारंपरिक गरबे का आयोजन होता है, जिसमें केवल जेठी समाज के लोग ही हिस्सा लेते हैं. नांता मंदिर के सेवक सोहन जेठी ने बताया कि रावण को बनाने के लिए अखाड़े की मिट्टी का उपयोग किया जाता है. मिट्टी का रावण बनाने में दूध, दही, शक्कर और शहद का इस्तेमाल किया जाता है.

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कच्छ से कोटा आने की कहानी :किशोरपुरा निवासी सुनील जेठी ने बताया कि उनके पूर्वज 300 साल पहले गुजरात के कच्छ से कोटा आए थे. वे मूल रूप से गुजराती ब्राह्मण होने के साथ ही पेश से पहलवान हैं. उन्होंने बताया कि कोटा के राज परिवार में गुजरात के कच्छ की राजकुमारी का विवाह हुआ था. उनकी सुरक्षा के लिए गुजरात से वे लोग कोटा आए थे. उस दौरान यहां पर एक कुश्ती का आयोजन हुआ था. जिसमें विदेश से आए पहलवानों को हमारे पूर्वजों ने हरा दिया था. इससे खुश होकर राज परिवार ने उससे कोटा में रहने का आग्रह किया और उनके पूर्वजों को पूरी व्यवस्था दी गई. इसी दौरान कोटा में तीन अखाड़े बनाए गए, जिनमें से एक किशोरपुरा और दो नांता में स्थित हैं.

राज परिवार ने बनवाए तीन अखाड़े :राज परिवार की ओर से नगर में तीन अखाड़े बनवाए गए. इन अखाड़ों की डिजाइन और नक्शे आपको एस से लगेंगे. मल्लयुद्ध में पारंगत पहलवानों के लिए (Ravana idol begins with Shradh Paksha) पहले सामग्री भी राज परिवार की तरफ से ही पहुंचाई जाती थी. समाज के अधिकांश लोग मल्लयुद्ध की तैयारी ही करते थे. यह पहलवान देशभर की कुश्ती और मल्लयुद्ध की प्रतियोगिताओं में शामिल होते थे. भारत जेठी बताते हैं कि कोटा के अलावा, मैसूर, उदयपुर, गुजरात के भुज व बड़ौदा के साथ ही अन्य कई जगहों पर भी मिट्टी के रावण बनाए जाते हैं.

मां लिंबजा के अवतरण की कथा:सुनील जेठी बताते हैं कि उनके समाज की कुलदेवी लिंबजा माता का मूल मंदिर गुजरात के पाटन जिले के देलमाल गांव में स्थित है. इस मंदिर की स्थापना भी करीब 1200 साल पहले हुई थी. समाज के ही एक व्यक्ति के सपने में माता आई थी और नीम के पेड़ के नीचे मंदिर बनाने की बात कही. इसके बाद जब खुदाई की गई तो वहां से माता की मूर्ति निकली थी, तभी से लिंबजा माता को यहां पूजा जाता है.

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