कोचिंग स्टूडेंट के सुसाइड के बढ़ते मामले कोटा.मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कोटा में कोचिंग स्टूडेंट के सुसाइड के बढ़ते मामले को लेकर चिंतित हैं. इसके लिए उन्होंने शुक्रवार को बैठक भी आयोजित की थी. इस संबंध में 15 दिन में रिपोर्ट मांगी गई है. इसके लिए एक कमेटी बनाई जाएगी, जिसमें कोचिंग संस्थान से लेकर प्रशासन और मनोचिकित्सक सहित कई लोगों को शामिल किया जाएगा. हालांकि इस मीटिंग के दौरान जो सुसाइड के कारणों पर चिंता सभी ने जाहिर की, उसमें सबसे बड़ा कारण पेरेंट्स का दबाव सामने आया है.
सीएम अशोक गहलोत ने मीटिंग में साफ कहा कि पेरेंट्स भी अनावश्यक दबाव बच्चों पर नहीं डालें, उन्हें आईआईटीयन या डॉक्टर बनाने की जिद नहीं करें. इस संबंध में कोई अग्रिम कार्रवाई नहीं की गई है, लेकिन कोटा के सुसाइड के आंकड़े पर नजर डाली जाए तो साल 2011 से अब तक 181 बच्चों ने सुसाइड किया है. इनमें मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी करने के लिए आने वाले विद्यार्थी शामिल हैं. इन बच्चों के सुसाइड के पीछे पेरेंट्स और पढ़ाई के दबाव के अलावा कुछ अन्य भी कारण सामने आए हैं.
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परिजनों से हुई बात भी नहीं टाल सका सुसाइडः कोटा में बीते समय में हुए कुछ सुसाइड के मामलों में यह भी सामने आया है कि बच्चों ने सुसाइड से पहले अपने पेरेंट्स से अच्छे से बात की थी. कम्युनिकेशन गैप होने के चलते अपने दिमाग में चल रही बातों के बारे में परिजनों को नहीं बता सके. मनोचिकित्सक डॉ. एमएल अग्रवाल का कहना है कि लंबे समय से बच्चा अपने आप को सुसाइड के लिए तैयार करता है. पेरेंट्स की हाई एक्सपेक्टेशन के चलते ही बच्चा दबाव में रहता है, इसीलिए वह पेरेंट्स से अपने दिमाग में चल रहे विचार शेयर नहीं कर पाता है.
न्यूक्लियर फैमिली के चलते बढ़ रहा है दबावःडॉ. अग्रवाल का कहना है कि बच्चों पर पेरेंट्स का बहुत प्रेशर रहता है. आजकल न्यूक्लियर फैमिली सिस्टम हो है. एक या दो बच्चे होते हैं और इन्हीं के अच्छे भविष्य की अपेक्षा होती है. पेरेंट्स भी पढ़ाई के लिए टोकते रहते हैं. कुछ हद तक तो ये सही है, लेकिन बच्चों पर प्रेशर देना ठीक नहीं है. बच्चे को कहें कि वह पढ़ाई में अपना बेस्ट दें.
यहां समझिए कैसे बढ़ते गए सुसाइड के मामले पेरेंट्स जता देते हैं एहसानःडॉ. अग्रवाल का कहना है कि कोटा आने के पहले सभी बच्चों और उनके पेरेंट्स को खर्च की जानकारी होती है. जो लोग लोन लेकर या जमीन बेचकर यहां पर बच्चों को भेजते हैं, उनमें बच्चों को ही नहीं पेरेंट्स को भी तनाव होता है. उनको आने से पहले पूरा एनालिसिस करना चाहिए. पेरेंट्स को यह मैनेज करना चाहिए ताकि बच्चे को तनाव नहीं हो. उन्होंने बताया कि कई बार बच्चों के समझ में बैठ जाती है कि पेरेंट्स का काफी पैसा खर्च हो गया है. कुछ पेरेंट्स एहसान जता देते हैं. इससे बच्चा तनाव में चला जाता है.
इस तरह से हो जाता है लाखों का खर्चाः कोटा में कोचिंग के लिए आने वाले बच्चे का खर्चा औसत 3 लाख रुपए के आसपास हर साल होता है. यहां पर कोचिंग की एवरेज फीस 70 हजार से लेकर 1.5 लाख रुपए के बीच है. इसके अलावा इतना ही खर्चा हॉस्टल में रहकर हो जाता है. स्टेशनरी, घर आना जाना और अन्य दैनिक जरूरत के अलावा हाथ खर्च भी होता है. हॉस्टल की जगह पीजी में रहने वाले बच्चों का खर्च कुछ हजार हर महीना कम रहता है, हालांकि महंगे हॉस्टल में रहने वाले बच्चों का खर्चा 4 से 6 लाख के बीच भी हो जाता है.
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स्क्रीनिंग फॉर्म हो मैंडेटरीः डॉ. अग्रवाल का कहना है कि बच्चों से कोचिंग में एडमिशन के पहले स्क्रीनिंग फॉर्म भरवाया जाए. इससे उनकी बीमारियों की जानकारी सामने आ पाएगी. अगर मनोरोग के भी लक्षण हैं, तो वह भी सामने आ जाएंगे. उन्होंने कहा कि कई परिवार में सुसाइड की टेंडेंसी होती है और इसके चलते भी लोग इस तरह की घटनाएं करते हैं. ऐसे बच्चे मानसिक रूप से काफी कमजोर होते हैं. सुसाइड के पहले नजर आने वाले लक्ष्ण की पहचान के लिए फैकल्टी, हॉस्टल वार्डन और सिक्योरिटी स्टाफ की ट्रेनिंग होनी चाहिए.
पैरंट्स का सुपरविजन भी जरूरीःकोटा में कई बच्चे नशे की तरफ चले जाते हैं या फिर गलत राह पकड़ लेते हैं. ऐसे में वह पढ़ाई से भी विमुख होने लगते हैं. ऐसे बच्चों को पेरेंट्स को डांटना नहीं चाहिए. उनको सुपरवाइज करने के लिए उनके साथ यहां पर आकर रहना चाहिए. जब बच्चा अकेला रहता है तब डिस्ट्रैक्ट होने के चांसेज बढ़ जाते हैं. बच्चे को समझाया जा सकता है कि सिलेक्शन नहीं हो तो कोई बात नहीं है, जिंदगी में कई सारे रास्ते हैं. बच्चों को काउंसलिंग की काफी जरूरत होती है, उनकी बात को समझें और उन्हें समझाएं.
एक मामले में पिता डाल रहे थे बच्चे पर प्रेशरःडॉ. अग्रवाल ने उदाहरण देते हुए बताया कि कई बार पेरेंट्स भी बच्चों पर ज्यादा प्रेशर डाल देते हैं. उन्होंने बताया कि सुसाइड प्रिवेंशन की होप हेल्पलाइन में दो बच्चे आए थे. जब उनसे पूछा गया तो बच्चे बोले कि हमारे पेरेंट्स ने कह दिया आईआईटी में एडमिशन नहीं हुआ तो यहां आने की जरूरत नहीं है. इस मामले की तहकीकात में सामने आया कि पिता आईआईटीयन बनना चाहते थे, लेकिन सफल नहीं हुए. इसके बाद उन्होंने वकालत की वह भी नहीं चला. बाद में एक एजेंसी लेकर बिजनेस शुरू किया. इसी कारण वह अपनी इच्छा अपने बच्चों पर डालना चाहते थे और उसपर प्रेशर दे रहे थे.
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ग्रुप में आने के चलते भी कंपटीशनःकोटा आने वाले बच्चों में कुछ ग्रुप ऐसे भी होते हैं जो एक शहर के एक ही स्कूल या आपस में जानकर होते हैं. ऐसे में उनके बीच भी कंपटीशन होता है. एक बच्चे के ज्यादा सफल होने पर दूसरों में हीन भावना आ जाती है. डॉ. अग्रवाल का कहना है कि यह टेंडेंसी बचपन से आगे तक रहती है. ऐसे बच्चों का डिप्रेस होना नॉर्मल बात है, लेकिन इन बच्चों में हॉपिंग स्किल्स अगर बचपन से होगी, तो वह आगे बढ़ जाएंगे. यह भी फैमिली के बीच में रहने से ही आती है.
कठिन एग्जाम फाइट करना चुनौतीःकोचिंग संस्थानों की बात मानें तो आईआईटी एंट्रेंस का एग्जाम जेईई एडवांस्ड दुनिया की सबसे कठिन प्रवेश परीक्षाओं में शामिल है. इसी तरह से मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम नीट यूजी भी कठिन एग्जाम में आता है, क्योंकि प्रत्येक सीट के लिए करीब 20 से 25 विद्यार्थियों के बीच में मुकाबला होता है. एक बार नीट यूजी क्लियर होकर अच्छी रैंक आने पर सरकारी मेडिकल कॉलेज में कम फीस पर एमबीबीएस की पढ़ाई हो जाती है. वहीं, प्राइवेट मेडिकल कॉलेज या मैनेजमेंट सीट पर पढ़ाई 35 लाख रुपए से सवा करोड़ रुपए तक में होती है, इसलिए बच्चे सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीट पाने के लिए मशक्कत करते हैं, लेकिन पिछड़ जाने पर तनाव में आ जाते हैं.
कई बार दे चुके होते हैं अटेम्प्टः आईआईटी एंट्रेंस जेईई एडवांस्ड में बच्चों को केवल 2 साल ही मिलते हैं, लेकिन मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट यूजी में ऐसा नहीं है. विद्यार्थियों के लिए कोई प्रतिबंध नहीं है, ऐसे में वह कितनी बार भी इस परीक्षा को दे सकता है. कोटा में ऐसे कई बच्चे हैं जो कि 5 से 6 बार भी यह परीक्षा दे चुके हैं. वे हर बार अपने पेरेंट्स को यही कहते हैं कि इस बार उनका सिलेक्शन हो जाएगा, सिलेक्शन नहीं होने पर भी वे तनाव में आ जाते हैं.