करौली. शहर में यूं तो फागोत्सव की धूम बरकरार है. लेकिन, आधुनिकता की चकाचौध में परंपराएं कहीं न कहीं लुप्त होती नजर आ रही हैं. भाग-दौड़ भरी जिंदगी के बीच पुरूषों का फाल्गोत्सव के प्रति पिछले कुछ सालो से रूझान कम हुआ है. वहीं फाग गीतों के आयोजन में महिलाओं की अधिक रूचि दिखने लगी है.
करौली की होली की पुरानी परंपरा
एक जमाना था जब लोग एक पखवाडे पहले से ही फाग की मस्ती में डूब जाते थे. होली के दिन घर-घर जाकर चंदा उगाते थे. होलिका जलाने के लिए रात को घरों से लकडियां जमा करते थे. लेकिन अब सिर्फ औपचारिकता रह गई है.
बसंत पंचमी के बाद से ही फागोत्सव के स्वर गूंजने लग जाते थे. शहर में जगह जगह होली गीतों के सामूहिक आयोजन होते थे. जिनमें विभिन्न मण्डली हिस्सा लेती थी. होली के गीत ब्रज भाषा में कृष्ण राधा संग होली खेलने पर अधिक आधारित होते है.
इसके अलावा प्रमुख सार्वजनिक स्थानों और निजी आवासों पर ये आयोजन लगभग एक पखवाडे तक चलते थे. पिछले कुछ सालो तक बड़े कार्यक्रम के रूप में शहर के बड़ा बाजार में महामुर्ख सम्मेलन होते रहे हैं. इसमें गीत गाए जाते थे. लेकिन परम्परा में परिवर्तन आने से मुर्ख सम्मेलन भी बंद हो गए हैं.