करौली.समय के साथ बदलते इस समाज में मिट्टी के दीपकों की मांग कम हो चुकी है, लेकिन आज भी इनका प्रचलन बाजार में देखा जा सकता है और वह भी इन कुम्हारों की बदौलत. कुंभकार वर्षों से चली आ रही परंपरा को जिंदा रखने के लिए लगन और कड़ी मेहनत से इसमें जुटे हुए हैं.
कुंभकारों ने बताया कि आज से 15 साल पहले उनके हाथों से बिकने वाले दीपक दूर-दूर तक प्रसिद्द थे. लेकिन बदलते समय के साथ बाजार में कम मूल्यों पर इलेक्ट्रॅानिक, चाईनीज लाईटें और दीपक आ गए है. जो आजकल की पीढ़ी को काफी लुभा रहे हैं. चाईना से कम मूल्यों पर आने वाले दीपक लोगों को बहुत भा रहे है. जिससे दीपावली पर मिट्टी से बने दीपकों को उपयोग में लेने की पुरानी परंपरा खत्म सी होने लगी है. इसके साथ ही कुंभकारों ने कहा कि वे इस परंपरा को इतनी आसानी से खत्म नहीं होने देंगे.
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मिट्टी के दीपक बनाने के लिए ये कुम्हार गणेश चतुर्थी के तीन दिन बाद से ही जुट जाते है. फिर शुरू होता है मिट्टी के राजा कुम्हार के हाथ से निकलने वाले दीपकों का जादू. मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुम्हार पूरे शहर और आसपास के इलाकों में मिट्टी के दीपको को सिर पर ढोकर बेचने जाते है. जिससे की पुरानी परंपरा बनी रहे.
- कुंभकारों ने बताया कि दीये बनाने के लिए चिकनी मिट्टी 5 से 8 हजार से रुपए तक की आती है.
- 200-300 रुपए मजदूर फैक्ट्री पर लाने के ले लेता है. फिर हम मिट्टी को छानते है.
- उसके बाद मिट्टी को भिगोकर मशीन में रखते है. इसके बाद कहीं जाकर हाथों से ये दीये तैयार होते हैं.
- दीपक तैयार हो जाने के बाद गीला रहता है. जिसे कड़ी धूप में सुखाया जाता है.
- धूप में रखने के बाद जब दीपक हल्के से सूख जाते है. तब बदन को जलाने वाली भट्टी के आगे बैठकर उन्हें पकाया जाता है.
- इस पूरी प्रकिया के बाद दीपक तैयार होता है. इतनी मेहनत करने के बाद यह दीपक बाजार मे 40-50 रुपए सैकड़ा के भाव से बिकता है.
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अपनी भारतीय परंपराओं को बचाने के लिए कुंभकार बहुत मेहनत करते हैं. इनमें से कुछ तो कर्ज से पैसा लेकर दीये बनाते हैं. लेकिन चाइनीज लाइटों और रोशनी की चका-चौंध में इन दीयों की रोशनी कहीं फीकी सी पड़ती जा रही है. ऐसे में अब हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि हम इनके बनाए दीयों को खरीदें. ताकि इन कुंभकारों के घरों में भी रोशनी हो सके.
चाइनीज लाइटों का नहीं, मिट्टी के दीये का करें इस्तेमाल
कुम्हारों के घरों में भी होगा उजाला , जन-जन होगा खुशहाल