जोधपुर. दाल बाटी का नाम लेते ही जोधपुर का जिक्र आना स्वभाविक है. राजस्थानी स्वाद से लबरेज बाटी का जायके में खासा महत्व है. यूं तो आमतौर पर लोगों को लगता है कि जो दालबाटी घरों में बनती है, वही असली दाल बाटी होगी. घरों में बनने वाली दाल बाटी इस भोजन का उन्नत रूप है, जो बाटी ओवन में बनती है या फिर बाफला बाटी के रूप में उबाल कर तली जाती है. लेकिन राजस्थानी खालीस बाटी जगरे में ही बनती है. जगरा यानी उपले. गाय के गोबर से बने उपले में बाटी को सेंका जाता है. इन्हें स्थानीय भाषा मे छाणे कहा जाता है.
माना जाता है कि इस तरह से सेकी गई बाटी की गुणवत्ता ज्यादा बेहतर होती है. हालांकि इसके उलट गैस की भट्टियों में भी बाटी सेकी जाने लगी है. लेकिन इस पुरातन तरीके से सेकी बाटी आज भी लोगों को खासा पसंद है. घरों में बनने वाली दाल बाटी का खाना होटलों पर मिलने की शुरूआत 1985 में हुई थी. आज की तारीख में जोधपुर में दाल बाटी की सैंकडों होटल है. लेकिन जगरे में बाटी बनाने वाली इक्का दुक्का ही होटल हैं. इनमें सबसे उपर नाम भाटी दालबाटी का है. जहां प्रतिदिन सुबह आठ बजे जगरे के लिए बाटी तैयार होती है. यहां सुबह दस बजे से रात नौ बजे तक जगरे की बाटी मिलती है.
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लाल गेहूं से बनती है बाटीः जगरे की बाटी बनाने वाले अशोक भाटी बताते हैं कि जगरे में सामान्य आटे से बनी बाटी का स्वाद नहीं आता है. हम बरसों से देशी लाल गेहूं के आटे से ही बाटी बनाते आए हैं. यह गेहूं बाड़मेर क्षेत्र से लाते हैं. देशी लाल गेहूं बारिश के पानी से ही पकता है. अशोक भाटी बताते हैं कि सामान्य गेहूं से लाल गेहूं दो गुना महंगा मिलता है. गेहूं का महीन आटा नहीं बनाते हैं, थोडा मोटा भुरभुरा रखते हैं, जो बाटी में भी नजर आता है. कहा जाता है कि जगरे में यह मोटा आटे का स्वाद जगरे में पकने के बाद सामान्य आटे से कहीं ज्यादा होता है. इसके लिए दाल भी भट्टी पर बनाई जाती है, जो मंद मंद आग पर उबलती रहती है. जिससे उसका टेस्ट काफी बेहतर होता है. इतना ही नहीं जोधपुर में बाहर से आकर काम करने वाले लोग हर दिन यह दालबाटी खाते हैं.