जोधपुर. देश में छुआछूत, जात-पात का दंश आज भी बरकरार है. विकास की रफ्तार के दरमियान इस दंश से पीड़ित कोई ना कोई देखने को मिल जाता है. लेकिन आज से करीब 638 साल पहले लोक देवता बाबा रामदेवजी ने छुआछूत, जात-पात को समाप्त करने के लिए समाज के उपेक्षित वर्ग को अपनाया था. उन्हें बराबरी का दर्जा देने के लिए जागरूकता पैदा की. उन्होंने कभी हिंदू-मुस्लिम में भेद नहीं किया. यही कारण है कि 6 दशक के बाद भी पश्चिमी राजस्थान में एक हिंदू संत को पीर के रूप में पूजा जाता है.
जैसलमेर जिले के रामेदवरा जिसे रूणेचा भी कहा जाता है. वहां स्थित बाबा रामदेवजी के मंदिर में दोनों संप्रदाय के लोग शीश नवाते हैं. लोगों में उनके प्रति आज भी अटूट आस्था बनी हुई है. यूं तो उनके राजस्थान में कई मंदिर हैं. लेकिन मुख्य मंदिर रामदेवरा में है. इसके अलावा जोधपुर के मसूरिया और नागौर जिले के परबतसर में भी उनका बड़ा मंदिर है. हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वितीय से एकादशी तक यहां मेला भरता है. जिसमें लाखों की संख्या में लोग पहुंचते हैं. इनके दर पर बड़ी संख्या में लोग हजारों किमी दूर से पैदल आते हैं और शीश नवाते हैं. लोक देवता बाबा रामदेव जी के भक्तों का रैला मेला के दौरान सड़कों पर दिन-रात दिखाई देता है. इस वर्ष 638 वां मेले का आयोजन किया गया.
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राजपूत वंश के रामेदव बने समाज सुधारकःबाबा रामदेव के पिता राजा अजमल तंवर शासक थे. उनके कोई संतान नहीं थी. उन्होंने अपनी पत्नी मैणादे के साथ द्वारका जाकर कृष्ण भक्ति कर संतान के रूप में दो पुत्र प्राप्त किए थे. जिनके नाम बीरमदेव व रामदेव थे. उन्हें कृष्ण के अवतार की भी संज्ञा दी जाती है. रामदेव का जन्म विक्रम संवत 1409 में भाद्रपद की द्वितीया को बाड़मेर के उण्डू काश्मिर में हुआ था. रामेदव बचपन से ही ओजस्वी थे. उन्होंने कई चमत्कार दिखाए थे. बाल्यकाल में गुरु बालीनाथ के सानिध्य में भैरव राक्षस का संहार करने का उल्लेख मिलता है. बाबा रामदेव के वंशज आनंदसिंह तंवर का कहना है कि उन्होंने उस समय समाज में सुधारक की भूमिका निभाई थी. उपेक्षित वर्ग को गले लगाया. जिसके चलते आज भी लोग उनको मानते हैं. इसके अलावा पूरे देश में एक मात्र रामवेदरा वह स्थान है, जहां हिंदू व मुस्लिम दोनों आते हैं. वे बताते हैं कि यहां सभी की मनोकामना पूरी होती है. अपनी अल्पआयु में ही उन्होंने जो कार्य किए थे, उसके चलते आज लोग उन्हें कलयुग का सच्चा चमत्कारी देवता मानते हैं. रामेदव ने 1442 विक्रम सवंत में भाद्रपद की एकादशी को समाधि ली थी.
गुरु का स्थान रखा आगेःबाबा रामदेव के गुरु बालीनाथ थे. जिनसे उन्होंने शिक्षा दिक्षा ग्रहण की. उनके बताए मार्ग पर चल कर ही उन्होनें भेदभाव से दूरी बनाई थी. रामेदवरा से 12 किमी दूर परमाणु धरती पोखरण के पास उनका धुणा है. लेकिन उनकी समाधि जोधपुर के मसूरिया पहाड़ी स्थित मंदिर पर है. यहीं पर उन्होंने अंतिम तपस्या की थी. मसूरिया मंदिर के ट्रस्टी का कहना है कि जब बाबा रामदेव ने रूणेचा में समाधि ली थी, तब कहा था कि मेरी समाधि पर आने से पहले जो मेरे गुरु की समाधि के दर्शन करेगा उसकी मनोकामना पूर्ण होगी. यही कारण है कि मेले के दौरान रामेदवरा जाने से पहले श्रद्धालु पहले जोधपुर उनके गुरु की समाधि के दर्शन करने आते हैं. जिससे उनकी मनोकामना पूर्ण होती है. श्रद्धा का आलम यह है कि लोग मनोकामना पूर्ण होने के बाद भी बरसों से लगातार दर्शन के लिए आते हैं. जोधपुर मसूरिया मंदिर के अध्यक्ष नरेंद्र सिंह चौहान का कहना है की यह क्रम लगातार जारी है. हर वर्ष जोधपुर में ही करीब 10 लाख लोग दर्शन के लिए आते हैं.
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पंच पीरों को दिया पर्चाः जोधपुर में मसूरिया मंदिर के अतिरिक्त राईकाबाग में बाबा रामदेव का एक जुगल जोड़ी मंदिर भी है. जिसमें बाबा रामदेव के साथ उनकी पत्नी रानी नैतल की मूर्ति है. यहां पर भी चमत्कार होते हैं. सैनाचार्य अचलानंद बताते हैं कि बाबा रामदेव ने हर वर्ग को अपने साथ जोड़ा था. वे उनके दुख हरते थे. इस मंदिर के प्रति जोधपुर राजपरिवार की भी आस्था है. सैनाचार्य का कहना है कि बाबा रामदेव की परीक्षा लेने के लिए मक्का से पांच पीर आए थे. बाबा ने उनको भी चमत्कार दिखाया था. इसके बाद से उन्हें पीरों का पीर कहा जाने लगा. उन्होंने बताया कि बाबा रामदेव का कलयुग में भी साक्षात चमत्कार है.
अटूट आस्था का दर है रामदेवरा. गरीब असहाय वर्ग में बड़ी मान्यताःबाबा रामदेव के दर्शन के लिए पूरे देश से लोग आते हैं. लेकिन खास तौर से गुजरात, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब से बड़ी संख्या में लोग पैदल और अपने वाहनों के जरिए यहां आते हैं. इनमें ज्यादातर समाज के उपेक्षित वर्ग के श्रद्धालु होते हैं जो अपनी मनोकामना लेकर यहां आते हैं. लेकिन बदलते समय के साथ समाज के हर वर्ग की उनके प्रति आस्था बढ़ रही है. जोधपुर शहर में तो मेले के दौरान हर समाज के लोग सेवा कार्यों में सम्मिलित होते हैं.
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तस्वीर से ज्यादा प्रतीक चिह्न की पूजाः लोक देवता बाबा रामदेव मंदिरों को’ देवरा ‘ कहा जाता है. जिन पर श्वेत या 5 रंगों की ध्वजा, जिसे नेजा कहा जाता है, फहराई जाती है. पैदल आने वाले जातरूओं (श्रद्धालुओं) के हाथ में ऐसे झंडे देख पता चलता कि वह रामदेवरा जा रहा है. इसके अलावा भक्त इनको कपड़े का घोड़ बनाकर चढ़ाते हैं. उनको नीले घोड़े का अश्वार कहा जाता है. इसके अलावा इनके प्रतीक चिह्न के रूप में पगल्ये (चरण चिन्ह) की पूजा होती है. रामदेव ने मर्ति पूजा, तीर्थयात्रा में अविश्वास प्रकट किया तथा जाति प्रथा का विरोध करते हुए वे हरिजनों को गले का हार, मोती और मूंगा बताते हैं. उन्होंने कामडिया पन्थ की स्थापना की थी.
हिंदू-मुस्लिम सभी झुकाते हैं शीश पांच पीपली जुड़ी है पंच पीरों सेःबाबा रामदेव से जुडे़ स्थानों में एक रामदेवरा के पास ही पंच पीपली है. यहां पीपल के पांच वृक्ष हैं. यह वृक्ष सैंकडों साल पहले के वाकिए से जुडे़ बताए जाते हैं. मान्यता है कि बाबा रामदेव को आजमाने के लिए मक्का−मदीना से पांच पीर रामदेवरा आए थे. रामदेव ने उनका सत्कार किया. उनको भोजन के लिए आमंत्रित किया. लेकिन उन्होंने कहा कि हम अपने कटोरे में ही भोजन करते हैं, जो मक्का में रह गए हैं. इसलिए भोजन नहीं कर सकते. कहा जाता है कि बाबा रामदेव ने वहीं पर ही कटोरे मंगवा दिए. यह चमत्कार देख पीरों ने उनको पीरों का पीर का दर्जा दिया. जिसके चलते मुस्लिम भी उन्हें रामसा पीर कहते हैं और शीश नवाते हैं. रामदेवरा से कुछ दूरी पर ही वह पीपल वृक्ष आज भी हैं.
दलित को बनाया बहन दिया संदेशःबाबा रामेदव ने समाज में छुआछूत को मिटाने का संदेश दिया था. वे किसी को छोटा बड़ा नहीं मानते थे. उन्होंने एक दलित कन्या डाली बाई को अपनी बहन बनाया था. हालांकि उनकी बहन सुगनाबाई थी. डाली बाई का दर्जा उनसे ज्यादा रखा. डाली बाई बाबा की सबसे बड़ी भक्त थी. यही कारण है कि रामदेव जब समाधी लेने लगे तो डाली बाई ने उनसे पहले समाधी ली. आज भी रामदेवरा में उनकी समाधी है. जिसके दर्शन लोग करते हैं. जोधपुर में भी डाली बाई का मंदिर मौजूद है.