जाट सियासत पर राजनीतिक विशेषज्ञों ने कही ये बात झुंझुनू.राजस्थान में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान संपन्न हो चुका है और अब आगामी 3 दिसंबर को परिणाम आने हैं. इस बीच राज्य की दोनों ही प्रमुख पार्टियां कांग्रेस और भाजपा की ओर से जीत के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन दोनों ही दलों के नेताओं के सामने एक सवाल अब भी गूंज रहा है कि आखिर मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा?. इस सवाल पर भाजपा और कांग्रेस दोनों दल अपने-अपने चुनाव चिह्व को दिखाते हुए गोलमोल जवाब दे रहे हैं. वहीं, राजनीतिक गलियारों में मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर ऐसा ही एक सवाल जाट समुदाय के भीतर तैरता रहता है.
राजस्थान में सबसे बड़ी आबादी होने के बाद भी जाट समुदाय से अब तक कोई मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सका. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों से जाट समुदाय के नेताओं के नाम तो कई बार उछले, लेकिन ऐन वक्त पर इन नामों पर विचार छोड़ दिया गया. हालांकि, दोनों ही दल जाट समुदाय के नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष के पद पर नियुक्त करते रहे हैं, लेकिन बात जब मुख्यमंत्री की आती है तो इस समुदाय के हाथ खाली रह जाते हैं. आइये जानते हैं कि कब-कब ऐसा पल आया जब लगा कि जाट मुख्यमंत्री राजस्थान में बन सकता है और कैसे अंतिम दौर में निर्णय बदल दिया गया.
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कब-कब आया जाट सीएम बनने का मौका : साल 1973 में रामनिवास मिर्धा मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे. उन्होंने इस पद के लिए सीधी लड़ाई भी लड़ी थी, लेकिन पार्टी की अंदरूनी वोटिंग में वो एक मत से हार गए थे. साथ ही कई जाट विधायकों ने भी उनका विरोध किया था, जिसके कारण वो सीएम नहीं बन सके थे. इसके बाद साल 1998 में परसराम मदेरणा मुख्यमंत्री की रेस में सबसे आगे रहे, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने एक लाइन का प्रस्ताव पास कर मुख्यमंत्री तय कर दिया और अशोक गहलोत सीएम चुने गए. आगे 2008 में कद्दावर जाट नेता शीशराम ओला ने भी अशोक गहलोत के सामने दावेदारी पेश की थी, लेकिन उन्हें विधायकों का समर्थन हासिल नहीं हुआ. इसके कारण वो सीएम नहीं बन सके.
राजस्थान की सियासत में बड़े जाट नेता पार्टी बदलकर गंवाई सीएम की कुर्सी :जाट समाज के एक बड़े नेता कुंभाराम आर्य आपातकाल में करीब 17 माह जेल में रहे. ऐसे में जब राजस्थान में विधानसभा चुनाव हुआ तो वो कांग्रेस के सामने मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, लेकिन कांग्रेस की जीत की संभावना को देखते हुए वो कांग्रेस में शामिल हो गए. हालांकि, इस चुनाव में कांग्रेस हार गई. उस समय कांग्रेस के विरोध में चौधरी चरण सिंह का बड़ा प्रभाव था और वे कुंभाराम को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन ऐन वक्त पर उनके गलत निर्णय के कारण को सीएम बनते बनते रह गए.
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तब सीएम पद के थे प्रबल दावेदार, लेकिन खुद हार गए चुनाव : जनता पार्टी की सरकार में इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में कद्दावर जाट नेता रामनारायण चौधरी ने राजस्थान में पहली गिरफ्तारी देकर आलाकमान की नजर में आए थे. ऐसे में साल 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना गया. कांग्रेस की प्रचंड लहर थी, लेकिन लगातार तीन बार के विधायक रहे रामनारायण चौधरी खुद चुनाव हार गए. इस तरह से वो सीएम की रेस से बाहर हो गए.
ये रह चुके हैं अध्यक्ष :जाट समाज से कांग्रेस में सरदार हरलाल सिंह, परसराम मदेरणा, रामनारायण चौधरी, डॉ. चन्द्रभान, नाथूराम मिर्धा, नारायण सिंह राजस्थान कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके हैं. वहीं, यदि भाजपा की बात की जाए तो यहां सतीश पूनियां पहले जाट अध्यक्ष बने थे, लेकिन इनमें से कोई भी मुख्यमंत्री पद तक पहुंच नहीं सका. सतीश पूनियां को तो साढ़े तीन साल अध्यक्ष रहने के बाद ऐन चुनाव के वक्त प्रदेश अध्यक्ष से विदाई दे दी गई. कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा भी इसी समुदाय से आते हैं.
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राजस्थान में सबसे अधिक आबादी जाट समुदाय की :साल 1931 में जातिगत जनगणना अंतिम बार हुई थी और इसमें अधिकृत रूप से राजस्थान की कुल जनसंख्या 1 करोड़ 17 लाख 86 हजार 04 थी. 1931 की जातिगत जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक जाट सबसे अधिक 10.72 लाख थे. ऐसे में थोड़ी बहुत जनंसख्या कम या अधिक हुई होगी. बावजूद इसके निसंदेह यह कहा जा सकता है कि राजस्थान में सर्वाधिक आबादी जाटों की है. ये करीब 10 प्रतिशत के आसपास हैं. इनके इर्द-गिर्द कोई अन्य जाति नहीं है. वहीं, दूसरे स्थान पर ब्राह्मण समुदाय है. राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि राजस्थान में सामान्यत: कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर रहती हैं. इसमें हमने शेखावाटी, मारवाड़ सहित राजस्थान की जाट बाहुल्य सीटों का विश्लेषण किया तो पाया कि ये वर्ग राजनीतिक रूप से बेहद सजग है. यदि एक पार्टी जाट को टिकट देती है और दूसरा अन्य वर्ग के प्रत्याशी पर भरोसा जताती है तो ऐसे में जाट मतदाता लामबंद होकर जाट उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करते हैं. इस लामबंदी से बचने के लिए करीब 30 से 40 सीटों पर दोनों ही पार्टियां जाट उम्मीदवारों को मैदान में उतारती रही हैं. इसे सियासी पार्टियों की मजबूरी भी कह सकते हैं.
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संख्या में सबसे अधिक विधायक :राजस्थान विधानसभा में पहुंचने वाले विधायकों की बात की जाए तो भी सबसे अधिक जाट समुदाय के ही विधायक चुने जाते रहे हैं. आकंड़ों के अनुसार हर विधानसभा क्षेत्रों में सभी दलों को मिलाकर करीब 30 से 40 विधायक चुन कर विधानसभा पहुंचते हैं. यह ज्यादातर शेखावाटी, बीकाणा, मारवाड़ व जयपुर के आसपास के जिलों से चुन कर आते हैं. इन क्षेत्रों में जाट जाति सामाजिक व आर्थिक रूप से प्रभावी है, इसलिए अन्य जाति के मतदाताओं को अपने पक्ष में प्रभावित करते हैं.
10 जिलों की करीब 65 सीटों पर जाट प्रभावी :वहीं, विशेषज्ञों के अनुसार राजस्थान के पुराने जिलों के हिसाब से 10 जिलों की लगभग 65 सीटों पर जाट मतदाताओं का सीधा असर है. साथ ही करीब 100 सीटों पर ये निर्णायक की भूमिका निभाते रहे हैं.