अकलेरा (झालावाड़).जिले के कामखेड़ा मार्ग और अकलेरा रोड के किनारे गाड़िया लोहार अपनी जिंदगी बसर कर रहे है. परिवार के साथ रह रहे ये लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में है. अपनी आजीविका के लिए ये लोहे के सामान (चिमटा, हंसिया, खुरपी, कुल्हाड़ी, करछली) बनाकर घर-घर बेचते हैं. लेकिन पिछले कई दशकों से लोहा पीटने वाले ये लोग मशीनी युग में इनके हाथों के बनाए चिमटे, खुरपी बड़ी-बड़ी कंपनियों के बनाए सस्ते एवं चमचमाते उत्पादों के सामने दम तोड़ने लगे हैं.
कब आएंगे गाड़िया लोहार के 'अच्छे दिन' नौनिहाल शिक्षा से वंचित
विडंबना यह है कि विकास के नाम पर अरबों रुपयों की जन-कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद इस समुदाय की सुध किसी ने भी नहीं ली, क्योंकि आज के बाजार के लिए ये बेमतलब हैं और सरकार के लिए गैरजरूरी. इस समुदाय के बच्चे सड़क पर ही जन्म लेते हैं और सड़क पर ही दम तोड़ने को मजबूत हैं. इनके नौनिहाल शिक्षा से वंचित हैं.
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गाड़िया लोहारों को नहीं मिल रही कोई सुविधा
गरीबी उन्मूलन और सर्वशिक्षा अभियान चलाने वाली सरकारों के आंगनबाड़ी केंद्र तक इनके डेरों के पास नहीं हैं. इनके पास न राशनकार्ड और न ही सिर छुपाने की कोई जगह है, और तो और, अपने पूर्वजों की देशभक्ति का इनाम उन्हें यह दिया गया कि आजादी के बाद लंबे अरसे तक ये मतदाता सूची से ही बेदखल रखे गए.
व्यवस्थित कर पाने में सरकार असमर्थ
लोहार ये ऐसी वनवासी जनजातियां हैं, जिन्हें विकास का आंशिक लाभ भी अभी तक नहीं मिल पाया है. सदियों से ये जातियां अपने पारंपरिक रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और पहन-पहनावे में रची-बसी हैं. इनकी दीनता खुद इनके पिछड़ेपन की कहानी बयां करती है. गरीबी उन्मूलन की योजनाएं इनके लिए दूर की कौड़ी हैं. वार्षिक योजनाओं में हालांकि इन जातियों के विकास के लिए राशि सदैव रखी जाती है, लेकिन आज तक सरकारें इनको व्यवस्थित कर पाने में असमर्थ ही रही हैं.
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गाड़ी में अपना जीवन बिता रहा गाड़िया लोहार समाज
गाड़िया लोहार राजस्थान का ऐसा पिछड़ा वनवासी समाज है, जो महाराणा प्रताप की आन-बान की धरोहर को लिए एक गाड़ी में अपना जीवन बिता रहा है. विज्ञान के इस युग में भी यह जाति अपने आपको एक स्थान पर बसा नहीं पाई है. वैसे राजस्थान में कुछेक स्थानों पर गाड़िया लुहारों को बसाने का प्रयास किया गया है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसा ही है.
महाराणा प्रताप के सैनिक थे गाड़िया लोहार
मान्यता है कि गाड़िया लोहार महाराणा प्रताप के ऐसे सेनानी थी, जो दिल्ली के बादशाह अकबर की पराधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. चंद राजपूतों को जंगल में संगठित कर महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता का शंखनाद इन्हीं लोगों को लेकर किया था. चाहे स्वतंत्रता का सपना उस समय पूरा न हुआ हो, लेकिन यह इन सैनिकों की गौरवशाली परंपरा का वाहक बन गया. ये लोग आज भी मकान बना कर रहने के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर सके हैं. राजस्थान और देश के अन्य भागों में वे गांव-गांव में गाड़ियों पर डेरा डाले घुमक्कड़ों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
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सरकार और समाज को आगे आने की जरूरत
अब इनके पुनर्वास और शिक्षण की ओर ध्यान दिया जाना समय की मांग है. दीन-हीन अवस्था में जी रही इस जाति को जहां सरकार से भारी अपेक्षाएं हैं, वहीं समाज की सहानुभूति भी उन्हें चाहिए. ये लोग मानव-समाज के ही अभिन्न अंग हैं. सामुदायिक विकास भाव से ही इन लोगों का पुनरोदय हो सकता है. जितना जल्दी हो सके, इन समाज के लिए कारगर कदम उठाए जाने चाहिए. हाशिये पर पल रहे इस समाज को मुख्यधारा में लाकर ही उनका जीवन संवारा-सुधारा जा सकता है.