जालोर.देश को आजाद हुए 73 साल हो गए है, लेकिन आज भी देश के कई ऐसे गांव है जो मूलभूत सुविधाओं से वंचित है. इस बीच केंद्र और राज्य में कई सरकारें आई और चली गई, लेकिन आज इन गावों में ना ही आवागमन के लिए कोई रास्ता बन पाया और ना पढ़ने के लिए स्कूल, यहां तक कि पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं है. इस सूची में जालोर जिले के चितलवाना उपखण्ड मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर बसा गांव लालपुरा भी शामिल है. इस गांव में हजार से ज्यादा लोगों की आबादी है, लेकिन सुविधाओं के नाम पर आज भी ये गांव वही 73 साल पहले का गांव है.
इस गांव में ना तो पहुंचने के लिए कोई सड़क मार्ग है और ना ही यहां के बच्चों को तालीम लेने के लिए कोई पाठशाला, इसके लिए इस गांव के बच्चों को 10 किलोमीटर का पैदल सफर तय कर चितलवाना जाना पड़ता हैं. वहीं, पीने के पानी की बात की जाए या सार्वजनिक राशन की दुकान की, यहां दूर-दूर तक इसका कोई वास्ता नहीं है. इसके लिए इस गांव के वाशिंदों को 4 किलोमीटर चलकर दूसरे गांव रामपुरा जाना पड़ता है. बारिश के मौसम में तो यह गांव लूणी नदी के बहाव क्षेत्र में टापू बन जाता है, जिसके इस गांव के लोगों का संपर्क भी दूसरे गांव के लोगों से टूट जाता है. ऐसे में जब ईटीवी भारत ने इस गांव की जांच-पड़ताल की तो पता चला कि ये सारी बातें शत-प्रतिशत सच है.
ग्रामीणों का कहना है कि देश को तो आजाद हुए 73 साल से अधिक का समय बीत चुका है. इसके बावजूद विकास के नाम पर इस गांव में केवल उच्च प्राथमिक विद्यालय ही बनी हुई है. इसके अलावा ना तो गांव में उच्च शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था है और ना ही चिकित्सा के क्षेत्र में कोई सुविधा है. गांव में लगभग हजार से अधिक लोगों की आबादी पूरी तरह से आत्मनिर्भर है, लेकिन सरकार की तरफ से अब तक किसी प्रकार की कोई सुविधा नहीं मिली हैं.
पढ़ने के लिए 10 किमी. दूर जाते हैं बच्चे
ग्रामीणों का कहना है कि इस गांव में शिक्षण संस्थान का अभाव होने के कारण ज्यादातर युवा कम उम्र में ही प्रवास चले जाते हैं, बालिकाएं 8वीं के बाद आगे नहीं पढ़ पाती और मजबूरन उन्हें अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ती है. इनमें कुछ जुनूनी बालिकाएं पढ़ने के लिए संघर्ष करती भी हैं तो उन्हें इसके लिए करीब 10 किलोमीटर दूर पैदल चलकर चितलवाना के लिए जाना पड़ता है. वहीं, बारिश के मौसम में ये पूरा गांव टापू बन जाता है. ऐसे में लगभग 4 महीने तक बाहर के गांव से इस गांव का संपर्क पूरी तरह से टूट जाता है, जिसके ग्रामीणों को खासा परेशानी होती है, लेकिन जिम्मेदार अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगता.