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टीचर्स डे स्पेशल: ये हैं वो शिक्षक जिन्होंने देश-दुनिया में बढ़ाया जैसलमेर का मान

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Published : Sep 5, 2019, 8:41 PM IST

शिक्षक दिवस के मौके पर आपको ऐसी शख्सियत के बारे में बताएंगे. जो देश दुनिया में मारवाड़ का मान बढ़ा रहे है. जैसे मन में रेतीले धोरों का ख्याल आता है. वैसे ही जैसलमेर की तस्वीर सामने आने लगती है. ठीक उसी तरह जैसलमेर के इतिहास, कला और संस्कृति का जिक्र आते ही याद आ जाती है नंदकिशोर शर्मा की.

teacher Nand Kishore Sharma, शिक्षक नंद किशोर शर्मा

जैसलमेर.सरहदी जिला जैसलमेर जिसे देश और प्रदेश में पिछड़े जिले की श्रेणी में माना जाता है और सरकारी कर्मचारियों के लिहाज से इसे काला पानी भी कहा जाता है. आज इसी पिछड़े जिले से शिक्षक दिवस पर ईटीवी खास रिपोर्ट लेकर आया है. जिसमें कैसे विपरीत हालातों में एक शिक्षक की जीवटता ने ना केवल यहां के बच्चों को शिक्षा प्रदान की बल्कि यहां की संस्कृति, कला एवं इतिहास का संरक्षण करते हुए उसे सात समन्दर पार तक भी पहुंचाया है.

रेतीले धोरे, पीत पाषाणों से बनी हवेलिया, सोनार किला और रेगिस्तान में गडसीसर झील, यहां के कलात्मक भवन और ऐतिहासिक विरासतें खुद इतिहास का बखान कर रही है. यहां की इसी ऐतिहासिक विरासत व समृद्ध संस्कृति को देखने के लिये हर वर्ष बड़ी संख्या में देसी और विदेशी सैलानी यहां पर भ्रमण के लिये आते हैं. लेकिन इतनी खूबसूरत दिखने वाली स्वर्णनगरी हमेशा से सैलानियों के लिए इतनी सुलभ व सुखद नहीं थी. इस धरती ने प्रकृति के असहनीय व कठोर थपेड़ों का सहा है और शायद इसलिए कहावत है कि आग में तपकर ही सोना निखरता है.

टीचर्स डे स्पेशल पर इतिहासकार और शिक्षक नंद किशोर पर एक रिपोर्ट

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इतिहास और संस्कृति की खुशबू देश-विदेश में फैलाई
जी हां, स्वर्णनगरी जैसलमेर आज जैसी दिखती है वैसी कुछ सालों पूर्व नहीं थी. दूर-दूर तक फैले रेतीले धोरे और परिवहन के साधानों की कमी के चलते यहां पर पहुंचना तो मुश्किल था ही वरन् यहां के लोगों के लिये भी जिले के भीतर परिवहन करना भी चुनौती भरा काम था. आजादी के बाद गाड़ियों के नाम पर रियासत परिवार के कुछ वाहनों को छोड़कर, गिनती की सरकारी गाड़ियां ही थी. तब दूर दराज के लोगों के लिये ऊंट व घोडे ही परिवहन का साधन हुआ करते थे. आप अंदाजा लगाइए कि भौगोलिक दृष्टि से इतने बड़े जिले में जहां एक गांव से दूसरे गांव की दूरी कई सौ किलोमीटर हुआ करती थी. ऐसे में लोग कैसे अपना जीवन यापन करते रहे होंगे. जीवन की इन्हीं कठोरताओं के बीच उस समय जैसलमेर में एक ऐसा शिक्षक हुआ करता था. जो इन दूरियों की परवाह किये बिना शिक्षा की जोत को जलाए हुए था और इस शिक्षक की जीवटता इतनी की आज भी यह शिक्षक इतिहास और संस्कृति की शिक्षा की खुशबू देश-विदेश में फैला रहा है.

वरिष्ठ शिक्षक नंद किशोर शर्मा का आसान नहीं था जीवन
हम बात कर रहे हैं जैसलमेर जिले के वरिष्ठ शिक्षक नंद किशोर शर्मा की. जिन्होंने समय की उन विपरीत परिस्थितियों में पिछड़े इलाके के बच्चों को शिक्षा से जोड़ा और अपनी जीवटता के चलते दूर दराज के इलाकों में जाकर बच्चों को शिक्षित किया है. जैसलमेर में ही जन्में शिक्षक नन्दकिशोर ने बचपन से ही अभावों को देखा था और कठिन परिस्थितयों में शिक्षा प्राप्त की थी. ऐसे में उन्हें मालूम था कि शिक्षा का क्या मोल है और फिर लग गये सरस्वती के इस खजाने को दूर-दराज की गांव ढाणियों के बच्चों में बांटने के काम में. नंद किशोर शर्मा बताते हैं कि वह समय बिल्कुल अभावों का था. जब दूर दराज के इलाकों में आने जाने के साधन तक नहीं हुआ करते थे. ऐसे में कई किलोमीटर पैदल यात्राए रोज करनी पड़ती थी, लेकिन उन्होंने कभी हौंसला नहीं हारा.

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शिक्षा की जोत के साथ.. सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को भी संजोया
वहीं अपनी संस्कृति और अपने समृद्ध इतिहास पर गौरव करने वाले शिक्षक नन्दकिशोर का यह भी कहना है कि शिक्षा के साथ-साथ में जिलेभर में फैली सांस्कृतिक विरासत भी उन्हें आकर्षित करती थी. जिसके चलते वे इस संस्कृति को एक सूत्र में पिरोने का सपना भी देख बैठे थे. अपने सपने और अपने मिशन दोनों के जुनून में शर्मा ने जिले में कई किलोमीटरों का सफर पैदल तय करते हुए. जहां शिक्षा की जोत को गांवों में जलाया. वहीं वहां पर बिखरी हुई सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत को एकत्र कर एक सूत्र में पिरोना शुरू कर दिया. समय बदला इलाके में साधनों की सुलभता भी बढ़ी लेकिन शर्मा का हौसला और जुनून अब भी वैसा ही था. अब के इस दौर में शर्मा ने अपने उन शिष्यों को भी संस्कृति की माला पिरोने के कार्य में जोड़ दिया. जिन्हें उन्होंने पढ़ाया था. अब शर्मा के शिष्य भी उन्हें दूर दराज के इलाकों में लगे ऐतिहासिक शिला लेखों और ग्रामीण इलाकों में बिखरी संस्कृति की जानकारियां उपलब्ध करवाने लगे. जिन्हें एक करने का मिशन शर्मा ने आरम्भ किया था.

'स्वर्णनगरी जैसलमेर' पहली पुस्तक लिखी
आजादी के बाद से अबतक के बीच का मध्यकाल शिक्षक शर्मा के लिये चुनौतियों भरा था. यह वह दौर था जब बहुत थोड़ी मात्रा में सैलानियों का यहां पर पदापर्ण हुआ था और इस दौर को शिक्षक शर्मा ने बेहतरी से पहचाना और भविष्यदृष्टा के रूप में पर्यटन में जिले के विकास की संभावनाओं का सपना देखा. अपनी बिखरी संस्कृति व ऐतिहासिक विरासत को संजोते हुए शर्मा ने अपनी पहली पुस्तक लिखी "स्वर्णनगरी जैसलमेर' जिसे यहां के लोगों के साथ साथ देश विदेश के लोगों ने बहुत सराहा और जैसलमेर के बारे में विस्तार से जानकारियां प्राप्त की. शर्मा की यह पुस्तक जैसलमेर के पर्यटन में एक मील का पत्थर कहा जा सकता है, क्योंकि इस पुस्तक का अनुवाद कई विदेशी भाषाओं में हुआ. जिसके बाद विदेशों में भी जैसलमेर के इतिहास और संस्कृति की खूश्बू फैली और सैलानियों के लिये भी यहां के प्रति आकषर्ण बढ़ा. एक शिक्षक के साथ साथ शर्मा द्वारा किये गये इस कार्य के लिये उन्हें सराहा जाने लगा.

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शिक्षा के सर्वोच्च पदक राष्ट्रपति पुरस्कार से भी नवाजा गया
जैसलमेर में पर्यटन की इतनी असीम संभावनाओं को देखते हुए अब भारत सरकार का भी ध्यान जैसलमेर की और आकृष्ट हुआ और शिक्षक नंदकिशोर द्वारा शिक्षा के साथ साथ संस्कृति के लिये किये गये काम के लिये उन्हें शिक्षा के सर्वोच्च पदक राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया. फिर क्या था अब शिक्षक शर्मा के हौसलों को नये पंख मिल चुके थे और उन्होंने जैसलमेर में अपने एक म्यूजिम की स्थापना की. जिसमें उन्होंने जैसलमेर की सांस्कृतिक विरासत को सहेजा और साथ ही संस्कृति व इतिहास से जुडी कई पुस्तकों का भी लेखन किया. अपने बनाये म्यूजियम में आज शर्मा ने कई चीजों को शामिल कर लिया है और जैसलमेर आने वाला हर सैलानी शर्मा के इस म्यूजियम में जरूर जाता है और यहां की बिखरी हुई खुशबूकी सुगंध एक ही जगह पर मिल जाती है.

शिक्षक नन्दकिशोर शर्मा अपने इस सफर के लिये अपने शिष्यों का धन्यवाद करते है. जिन्होंने इलाके में बिखरी हुई संस्कृति को समेटने में उनकी मदद की और आज उन्हीं शिष्यों के सहयोग और अपने जुनून के बल पर नन्दकिशोर शर्मा जैसलमेर जिले में शिक्षा के साथ साथ पर्यटन के विकास के मील के पत्थर की तरह जाने जाते हैं.

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