विश्व पुस्तक दिवस पर स्पेशल रिपोर्ट.. जयपुर.संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन यूनेस्को की ओर से इस बार विश्व पुस्तक दिवस की थीम स्वदेशी भाषाएं रखी गई हैं. भारत के परिपेक्ष में यदि बात करें तो यहां हर राज्य में अलग भाषाएं बोली जाती हैं, जिसका समृद्ध साहित्य भी मौजूद है. संविधान की आठवीं अनुसूची में 24 भाषाएं शामिल हैं, वो सभी स्वदेशी भाषाएं. हालांकि राजस्थान के गौरवशाली इतिहास का विस्तृत साहित्य राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ है और ये उत्तर भारत की सबसे पुरानी भाषा में शामिल है. साहित्य, इतिहास, शब्दकोश, लिपि और करीब 9 करोड़ लोगों की ओर से सामान्य बोलचाल में बोली जाने राजस्थानी बोली आज भी भाषा की मान्यता की बाट जोह रही है.
भारत के इतिहास के साथ मिलता है इसका इतिहास :राजस्थान यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर विशाल विक्रम सिंह ने बताया कि राजस्थान की बात करें तो यहां का भूगोल इतना बड़ा है कि यूरोप के कई देश इससे छोटे हैं. यहां अलग-अलग क्षेत्र में कहीं मारवाड़ी, कहीं ढूंढाड़ी तो कहीं शेखावाटी बोली जाती है. ये यहां की स्वदेशी भाषाएं हैं और इनका विपुल साहित्य है. आज से नहीं बल्कि जब से भारत का लिखित इतिहास मिलता है, तभी से इन भाषा-बोलियों का भी इतिहास मिलता है. पृथ्वीराज रासो, ढोला मारू जैसी अद्भुत रचनाएं भी लिखी गई हैं. भक्ति आंदोलन के कई कवियों पर ढोला मारू का काफी असर भी रहा.
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युवा पीढ़ी होगी समृद्ध : उन्होंने कहा कि खास अवसरों पर जब सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का उद्गार करना होता है तो लोग अपने ही लेखकों की रचनाओं को याद करते हैं जो उनके जुबान पर चढ़ी होती है. उन्होंने कहा कि राजस्थान की बोली को भाषा के तौर पर देखा जाना चाहिए, क्योंकि उनके नजरिए में बोली और भाषा में अंतर नहीं है. जो अंतर है वो भाषा वैज्ञानिकों, राजनैतिक ताकतों की वजह से हो सकता है, लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि समय-समय पर जिन्हें आप बोली कहते हैं, वो भाषा का दर्जा प्राप्त कर लेती हैं. यदि सरकारी राजस्थानी साहित्य का इस्तेमाल युवा पीढ़ी को शिक्षित करने के लिए करेगी तो बच्चों की कल्पनात्मक, रचनात्मकता और वैज्ञानिक चेतना समृद्ध होगी.
उत्तर भारत की सबसे पुरानी भाषा में से एक : राजस्थान विवि के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर जगदीश गिरी ने कहा कि स्वदेशी भाषा का तात्पर्य इस देश की सभी भाषाओं से है. राजस्थान की बात करें तो प्रदेश की लोकव्यवहार की भाषा राजस्थानी है, जिसे एक वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ा जाता है. भले ही राजस्थानी संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल नहीं हो पाई है, लेकिन राजस्थानी भाषा की सभी योग्यता पूरी करती है. उनका दावा है कि ये करीब बीते एक हजार साल से इस्तेमाल होती रही है. इसमें साहित्य लिखा गया है. राजस्थानी भाषा उत्तर भारत की सबसे पुरानी भाषाओं में शामिल है. इन भाषाओं में पुस्तकें लिखी गई हैं.
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राजस्थानी भाषा में नेट, पीएचडी : उन्होंने बताया कि जब राजस्थान का एकीकरण हुआ था उस दौरान के पत्र व्यवहार भी राजस्थानी भाषा में ही हुआ करते थे. प्राचीन काल की कई पांडुलिपियों में राजस्थानी भाषा का प्रयोग हुआ है. वर्तमान की बात करें तो राजस्थानी भाषा जितनी समृद्ध है उस क्षमता से उसका उपयोग नहीं हो रहा है. हिंदी पाठ्यक्रम का एक अध्याय राजस्थानी भाषा का भी रहा है. 11वीं और 12वीं में राजस्थानी को वैकल्पिक विषय के रूप में विद्यार्थी पढ़ रहे हैं. यूजीसी राजस्थानी में नेट करवा रही है. राजस्थान के तीन विश्वविद्यालय में राजस्थानी के विभाग चल रहे हैं. साथ ही इनमें पीएचडी भी हो रही है. प्रदेश में जनता आज भी राजस्थानी बोली में ही अपनी बात कहना पसंद करती है.
आज स्वदेशी भाषाओं को संरक्षित किए जाने की जरूरत है. ये हमारी सांस्कृतिक विरासत को विश्व पटल पर पहुंचाने और समृद्ध करने में मदद करती हैं. ऐसे में जरूरी है कि विरासत से जुड़ी सांस्कृतिक धरोहर और सांस्कृतिक लोककला की जानकारी स्वदेशी भाषाओं में उपलब्ध होनी चाहिए. महारानी कॉलेज की प्राचार्य प्रो. मुक्ता अग्रवाल का कहना है कि स्कूल, कॉलेजों के साथ ही परिवार को भी इसे बढ़ाने के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए. हम जिस तरह अपने बच्चों को अंग्रेजी सिखाने पर जोर देते हैं, उसी तरह स्वदेशी भाषाओं को भी प्राथमिकता दिए जाने की जरूरत है. नई शिक्षा नीति में भी मातृभाषा में शिक्षण पर जोर दिया गया है, लेकिन ऐसा हम तभी कर पाएंगे जब क्षेत्रीय या स्वदेशी भाषा में लिटरेचर उपलब्ध होगा.