इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने क्या कहा, सुनिए... जयपुर. राजस्थान में एक बार फिर कोरोना ने दस्तक दी है. हर दिन तीन से पांच नए केस सामने आ रहे हैं. वर्तमान में एक्टिव केस की संख्या 28 हो चुकी है. बढ़ते संक्रमण को देखते हुए स्वास्थ्य महकमे की ओर से एहतियात के तौर पर मॉनिटरिंग का दौर जारी है. अस्पतालों और मेडिकल कॉलेज में मॉक ड्रिल की जा रही है. आज इंटरनेशनल डे ऑफ एपिडेमिक प्रिपेरेडनेस मनाने के दौरान वर्तमान महामारी से बचाव की तैयारी की बात हो रही है. वहीं एक दौर ऐसा भी था जब भारत तकनीक में पिछड़ा हुआ था और सामने कई बड़ी महामारी की चुनौती थी, लेकिन उस दौर में भी उन पर पार पाई गई.
इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि प्लेग, लाल बुखार, ताऊन ऐसी लाइलाज बीमारियां थीं, जिसकी वजह से हर दिन 100 से ज्यादा मौतें हुआ करती थी. सर पुरोहित गोपीनाथ की डायरी में उल्लेख था कि सन 1897 में जयपुर में एक दिन में 115 से 130 लोगों की मौत हो रही है और ये दौर करीब एक-डेढ़ महीने रहा. लोगों में ये चर्चा हुई तो वो परकोटे से बाहर खेतों में रहने लगे. बावजूद इसके, मौत का आंकड़ा कम नहीं हुआ. तब उस दौर में मौजूद मेयो अस्पताल (वर्तमान में महिला चिकित्सालय) में टीके लगाने का एलान किया गया. तत्कालीन चीफ मेडिकल ऑफिसर दलजंग सिंह खानका ने ताऊन का टीका लगवाने की अपील की, जिसका फायदा भी मिला.
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हालांकि, ये बीमारी कई बार आई 1897 के बाद. 1902, 1909, 1913 और 1919 में भी जयपुर इससे ग्रसित रहा. उस दौरान मृतकों का आंकड़ा कोरोना महामारी से मरने वालों के आंकड़े से कहीं ज्यादा था. कुछ लोगों ने इसे दोष मानते हुए पूजा-पाठ भी कराई. बाद में मेडिकल साइंस में इस बीमारी को प्लेग नाम दिया. प्लेग की बीमारी फ्रांस से आई. यहां फ्रांस से आने वाले जहाज में जो चूहे आए, वो संक्रमित थे और यहां के चूहे उनसे संक्रमित हुए थे. पहले प्लेग को ही स्थानीय भाषा में ताऊन नाम दिया गया था, जिसमें शरीर में ऐंठन आना, मुंह से झाग आना और फिर मौत हो जाने के मामले मिलते थे. इस बीमारी में लोग एक दिन भी सरवाइव नहीं कर पाते थे. (पुरोहित गोपीनाथ की डायरी में मेंशन - एक लड़की सुबह छाछ देने आई रास्ते में उसने एक अर्थी को देखा और शाम को उसकी मौत हो गई).
हालांकि, उस दौर में ना तो तकनीक थी और ना ही किसी तरह का प्रतिबंध लगाया गया था. तीज-गणगौर की सवारी भी जयपुर में निकली. एहतियात के तौर पर ये जरूर कहा गया कि लोग घर से कम निकले. पढ़े-लिखे तबके ने टीके भी लगवाए. तब के लोगों का ये भी मानना था कि ये बीमारियां कोलकाता से आती है, क्योंकि यहां के मारवाड़ी वहां जाया करते थे और उनके साथ ये बीमारी लग करके आई थी. यहां लोकगीत तक बन गए थे कि 'सब कुछ हो जाए ताऊन ना हो'.
वहीं, 1930 में लाल बुखार का कहर बरपा, जिसने छोटे बच्चों को टारगेट किया. इस बीमारी में बच्चों को खांसी आने, चेहरा लाल होने और तेज बुखार आने के साथ मौत हो जाया करती थी. 1930 में जयपुर में एक ऐसा दौर आया कि हर दिन करीब 200 से 250 बच्चे काल का ग्रास बन जाया करते थे, तब जयपुर में तीन से चार आयु वर्ग के बच्चे ही नहीं बचे थे. तब यहां उस दौर के प्रसिद्ध वैद्य स्वामी लच्छीराम जी और भारत मार्तंड आयुर्वेदाचार्य ने एक स्पेशल चटनी बनाई थी, जिसे फ्री में बंटवाया गया. जयपुर महाराजा के निर्देश पर जयपुर के दूर-दराज वाले क्षेत्रों में भी ये चटनी पहुंचाई गई. इससे लाल बुखार कंट्रोल में भी आया. इसके साथ ही शिमला और कोलकाता से डॉक्टर बुलाए गए और बच्चों को बचाने का प्रयास किया गया.