डूंगरपुर.देश आजादी का अमृत महोत्सव (Azadi Ka Amrit Mahotsav) मना रहा है. देश की आजादी की लड़ाई (freedom movement) में वागड़ के संत गोविंद गुरु महाराज के योगदान (Saint Govind Guru Maharaj) को भूला नहीं जा सकता है. 1890 के दशक में ही वागड़ संत ने भक्ति के मार्ग से आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था. अंग्रेजों की प्रताड़ना और गुलामी के खिलाफ लड़ते हुए मानगढ़ धाम पर हजारों लोग एकत्रित हुए. अंग्रेजों ने इन्हें घेरते हुए गोलियों से भून दिया. इसमें 1500 से ज्यादा लोग मारे गए थे.
देश के स्वतंत्रता आंदोलन के बिगुल को बजाने वाले संत गोविंद गुरु (Story of Saint Govind Guru Maharaj) भारत के एक सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे. उन्होंने वर्तमान राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में 'भगत आन्दोलन' चलाया. संत गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव में एक बंजारा परिवार में हुआ था. बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी. गोविंद गुरु ने अपने गुरु की प्रेरणा से अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया. उन्होंने अपनी गतिविधियों का केंद्र वागड़ क्षेत्र को बनाया.
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गोविंद गुरु ने जगाई आजादी की अलखः संत गोविंद गुरु ने ना तो किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ली थी और ना ही किसी सैन्य संस्थान में प्रशिक्षण लिया था. अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान जब हर कोई अपने-अपने हिसाब से योगदान दे रहा था. तब अशिक्षा और अभावों के बीच जीवनयापन करने वाले आदिवासी अंचल के लोगों में धार्मिक चेतना की चिंगारी से आजादी की अलख जगाने का काम गोविंद गुरु ने किया था. वे ढोल-मंजीरों की ताल और भजन के जरिए आम जनमानस को आजादी के लिए प्रेरित करते थे.
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संत गोविंद गुरु (Story of Saint Govind Guru Maharaj) ने भगत आंदोलन 1890 के दशक में शुरू किया था. आंदोलन में अग्नि देवता को प्रतीक माना गया था. अनुयायियों को पवित्र अग्नि के समक्ष खड़े होकर पूजा के साथ-साथ हवन करना होता था. 1903 में उन्होने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की. इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी अपनाने को लेकर प्रचार-प्रसार गांवों में किया.
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प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था. जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे. लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कंधे पर परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे. मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी. इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा.
लोगों के एकत्रित होने का पता लगते ही पहुंचे अंग्रेज, चलाई गोलीः17 नवम्बर, 1913 को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था. इससे पहले गोविंद गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित वनवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर परेशान न करने का आग्रह किया था. प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं. इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया. उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे. पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलियां चलाना शुरू कर दिया. जिसमें करीब 1500 लोग मारे गए.
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पहले फांसी फिर आजीवन जेल की सजा दीः अंग्रेजों ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी. 1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे. 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हुआ. प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लोग उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं.
संत गोविंद गुरु भक्ति गीतों से लोगों को करते थे जागरूकः संत गोविन्द गुरु (Story of Saint Govind Guru Maharaj) ने अपने संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य का सृजन भी किया. वे लोगों को गीत सुनाते थे. इन गीतों में वे यह संदेश देते थे कि गोविन्द गुरु अंग्रेजों से देश की जमीन का हिसाब मांग रहे हैं. बता रहे हैं कि सारा देश हमारा है. हम लड़कर अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्त करा लेंगे.
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