चित्तौड़गढ़.राजस्थान को लोक संस्कृति का गढ़ कहा जाता है. कारण यह है कि प्रदेश के हर हिस्से में अलग-अलग परंपराएं हैं. वहीं, यहां कि अलग-अलग खानपान और संस्कृति है. उसी के आधार पर कला और संस्कृति का निर्माण हुआ है. जिसने धीरे धीरे एक अलग पहचान बना ली है.
सहरिया स्वांग कला संकट में अब वह चाहे मेवाड़ का गेर नृत्य हो या फिर जयपुर अंचल का ढूंढानी और बाड़मेर, बीकानेर का जब तक तेरहताली. इन लोक संस्कृतियों में बांरा की सहरिया स्वांग नृत्य कला का भी विशेष स्थान है. यह पूरी तरह से सहरिया जनजातीय वर्ग की कला है.
बता दें कि जंगली वेशभूषा में नृत्य के दौरान इनके हाव भाव आज भी लोगों को काफी आकर्षित करते नजर आते हैं, लेकिन सरकारी संरक्षण के अभाव में धीरे धीरे यह कला लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है.
खासकर युवा पीढ़ी इससे किनारा करती जा रही है. जिसे लेकर स्वांग कलाकार भी चिंतित हैं. इसके अलावा सहरिया स्वांग नृत्य किस प्रकार का होता है. जोकि अलग-अलग त्यौहार के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है. होलिका स्वांग फागुन महीने में रचा जाता है और इसके कलाकार उसी के आधार पर नृत्य की प्रस्तुति देते दिखाई देते हैं.
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वहीं भस्मासुर नृत्य दीपावली के आसपास शुरू होता है और 2 महीने तक कलाकार अपने इलाके में जगह-जगह की प्रस्तुति देते फिरते हैं. इसके अलावा कालीका नृत्य भी है. जिसकी प्रस्तुति नवरात्रि के दौरान दी जाती है. कलाकारों की माने तो समय के साथ साथ डिमांड में काफी कमी आई है और न तो समाज और नहीं सरकार इसके संरक्षण के प्रति गंभीर है.
आज मात्र 40 कलाकार रह गए हैं जो कि काम के अभाव में दूसरे व्यवसाय कर अपना गुजर बसर करने को मजबूर है. साथ ही करीब 20 साल से सहरिया स्वांग नृत्य की टीम का संचालन कर रहे गोपाल धनुका का कहना है कि अब पहले जैसी बात नहीं रही. हालांकि पर्यटन विभाग की ओर से उन्हें सरकारी आयोजनों में बुलाया जाता है. परंतु इसके बदले मिलने वाले पारिश्रमिक से पेट नहीं भरता.
आवश्यकताएं भी काफी बढ़ चुकी हैं, ऐसे में बच्चे अन्य काम धंधों के जरिए अपना पेट पाल रहे हैं. इसके अलावा सरकारी स्तर पर सहायता देने के साथ-साथ उन्हें समय-समय पर अपनी कला पेश करने का मौका दिया जाए तो इस कला को विलुप्त होने से बचा जा सकता है.