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मेवाड़ का हरिद्वार : यहां अस्थि विसर्जन और कालसर्प योग निदान के लिए पहुंचते हैं हजारों श्रद्धालु...

चित्तौड़गढ़ के कपासन में मातृकुंडिया कुंड की बहुत मान्यता है. इस कुंड को लेकर लोगों का मानना है, कि कुंड में नहाने वाले को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है. यहां जिसकी अस्थियां विसर्जित की जाती है, उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है.

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Published : Feb 21, 2020, 10:52 PM IST

chittaurgarh news, मातृकुंडिया कुंड
चित्तौड़गढ़ में मातृकुंडिया कुंड की है मान्यता

कपासन (चित्तौड़गढ़).मातृकुंडिया मेवाड़ का अत्यंत प्राचीन तीर्थ स्थल है. हर साल हजारों श्रद्धालु अपने दिवंगत परिजनों की अस्थियां विसर्जित करने और ग्रह शान्ति कालसर्प योग के निदान के लिये यहां आते हैं. इसी वजह से मातृकुंडिया को मेवाड़ का हरिद्वार भी कहा जाता है. हालांकि इस स्थान का ज्यादा विकास नहीं हुआ है, लेकिन पौराणिक मान्यताओं की द्रष्टि से इसका बहुत महत्व है.

चित्तौड़गढ़ में मातृकुंडिया कुंड की है मान्यता

जनश्रुति और पौराणिक कथा के मुताबिक मातृकुंडिया से थोड़ा आगे झाड़ेश्वर महादेव का प्राचीन स्थान है. यहां किसी समय परशुराम जी के पिता ऋषि जमदग्नी का आश्रम था. यहां ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के साथ रहा करते थे. माता रेणुका प्रतिदिन ऋषि जमदग्नि की पूजा के लिए बनास नदी के तट पर मिट्टी की मटकी बनाकर उसमें जल भर कर लाया करतीं थीं.

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एक बार जब रेणुका जल लाने वन में गई तो वहां से उनकी बहन के पति राजा सहस्त्रबाहू अपनी सेना के साथ निकले, जिनके वैभव को देख कर माता रेणुका के मन में ग्लानी पैदा हुई, कि वन में रहने वाले निर्धन ऋषि की पत्नी होने के कारण वो अपनी बहन के पति को भोजन के लिए भी आमंत्रित नहीं कर सकती हैं. इसी उधेड़बुन के कारण माता रेणुका से मटकी नहीं बन पाई और वो पूजा हेतु जल नहीं ला पाईं तो ऋषि जमदग्नि ने उनकी व्याकुलता का कारण पूछा, तब उन्होंने अपने मन की व्यथा बताई.

माता रेणुका के मन की बात जानकर ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु गौ माता का आह्वान किया. जिस पर कामधेनु माता प्रकट हो गईं और ऋषि जमदग्नि को राजा सहस्त्रबाहु को सम्पूर्ण सेना के साथ इच्छानुसार भोजन हेतु आमंत्रित करने के लिए कहा. माता कामधेनु की आज्ञा से ऋषि जमदग्नि ने राजा सहस्त्रबाहू को सम्पूर्ण सेना के साथ भोजन हेतु आमंत्रित किया.

जिस पर राजा सहस्त्रबाहू ने व्यंग्य से ऋषि जमदग्नि से पूछा, कि सम्पूर्ण सेना के इच्छानुसार भोजन में क्या मेरी सेना के पशु भी आमंत्रित हैं? इस पर ऋषि जमदग्नि ने हां कहा, लेकिन साथ ही ये कहा, कि आप हमारे अतिथि हैं और आपकी सेना में सभी को इच्छानुसार भोजन की प्राप्ति होगी. किन्तु ध्यान रहे, कि कोई भी हमारी कुटिया में प्रवेश नहीं करेगा. तब राजा सहस्त्रबाहू ने सहमति प्रदान करते हुए ऋषि जमदग्नि का आतिथ्य ग्रहण किया.

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राजा सहस्त्रबाहू की सम्पूर्ण सेना घने वन में इतना स्वादिष्ट भोजन कर चकित थी. राजा सहस्त्रबाहू भी वन में रहने वाले अपने निर्धन साढ़ू के इस आतिथ्य से चकित थे. ऋषि जमदग्नि के सभी के कुटिया से दूर रहने के निवेदन से उनके मन में शंका पैदा हुई, कि जरूर इस भोजन का जादुई राज उस कुटिया में छिपा हुआ है. जिसके बाद उसे जानने के लिए और उसे पाने के लिए वो ऋषि जमदग्नि के मना करने पर भी कुटिया की तरफ बढ़ने लगे. जिस पर ऋषि ने माता कामधेनु को चेताने के लिए शंखनाद किया, ताकि माता कामधेनु खतरे से सावधान हो जाएं.

माता कामधेनु ऋषि जमदग्नि के शंख की आवाज सुनते ही कुटिया से निकल कर हवा में उड़ने लगी. जिस पर कामधेनु को पकड़ने के लोभ में राजा सहस्त्रबाहू ने तीर चलाए, जिससे एक तीर से माता कामधेनु का कान काट गया और दूसरा तीर माता की नाभि में लगा, जिससे रक्त गिरा.

कहते हैं, कि माता कामधेनु के कटे कान के भूमि में गिरने से तंबाकू उत्पन्न हुआ और रक्त के भूमि में गिरने से वहां मेहंदी पैदा हुई. जब राजा सहस्त्रबाहू माता कामधेनु को नहीं पकड़ पाया तो उसने ऋषि जमदग्नि के गले पर तलवार रख कर कहा, कि वो उसे कामधेनु गाय दिलवाए अन्यथा वो उनके प्राण हर लेगा. तब ऋषि जमदग्नि ने तीन बार ताली बजा कर अपने पुत्र परशुरामजी को याद किया, जो वन में तपस्या में लीन थे.

पिता की पुकार सुनकर परशुराम जी मन के वेग से अपने पिता के पास पहुंच गए और तत्काल ही राजा सहस्त्रबाहू की सम्पूर्ण सेना का नाश कर दिया और बाद में भगवान शिव जी से प्राप्त फरसे से सहस्त्रबाहू की सारी भुजाओं को काट कर उसे परलोक भेज दिया और अपने माता-पिता के प्राणों की रक्षा की.

अपने माता पिता को पुन: उनके आश्रम में सकुशल छोड़ कर तपस्या हेतु पुन: वन में जाने के लिए अपने पिता से आज्ञा प्राप्त करने के लिए जब परशुराम जी अपने पिता ऋषि जमदग्नि के पास गए और उनसे पूछा अब मेरे लिए क्या आज्ञा है पिताजी? तो उनके पिता ने क्रोध में भर कर कहा, कि ये सब घटनाक्रम तुम्हारी मां के कारण हुआ है. इसलिए मेरी आज्ञा है, कि तुम तत्काल अपनी मां का सर धड़ से अलग कर दो.

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पिताजी की आज्ञा मानकर परशुराम जी ने तत्काल फरसे से अपनी मां का सर काट दिया. अपने पिता की आज्ञा मानकर एक बार तो परशुराम जी ने अपनी माता का वध कर दिया और बाद में पिता के प्रसन्न होने पर उन्होंने अपने भाइयों और माता के पुन: जीवित होने का और उन्हें किसी भी बात का स्मरण नहीं होने का वरदान भी प्राप्त कर लिया और उनकी माता पुन: जीवित भी हो गई लेकिन बाद में भी वो मातृहत्या के पाप से दुखी रहने लगे और परशुराम जी को ऐसा प्रतीत हुआ मानों उनकी माता रेणुका का सर कट कर उनकी पीठ से चिपक गया है.

जब उन्होंने अपने पिता को ये बात बताई तो पिता ने कहा तुम्हें मातृहत्या के दोष से मुक्त होने के लिए तीर्थ स्थलों पर जाकर अपने पापों से मुक्ति पाने का प्रयास करना चाहिए. पिता की आज्ञा मानकर परशुराम जी ने सम्पूर्ण पृथ्वी के समस्त तीर्थ स्थलों पर जाकर मातृहत्या के पाप से मुक्ति का प्रयास किया, लेकिन उन्हें कहीं भी मुक्ति नहीं मिली. उन्हें सदैव यही प्रतीत होता था, कि उनकी माता का सिर उनकी पीठ से चिपका हुआ है.

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जब परशुराम जी सम्पूर्ण पृथ्वी का चक्कर लगाकर पुन: मंगलेश्वर महादेव के समीप गांव में पहुंचे तो एक रात को उन्होंने एक गाय और बछड़े को बात करते सुना. जिसमें गाय अपने बछड़े से कह रही थी, कि उनके मालिक ने बछड़े को किसी और को बेच दिया है और वो सुबह उस बछड़े को ले जाएगा लेकिन बछड़ा अपनी माता से अलग नहीं होना चाहता था और अगले दिन सुबह परशुराम जी ने देखा की जो व्यक्ति बछड़े को लेकर जा रहा था. बछड़े ने उसी को अपने सींगो से मार-मार कर उसका वध कर दिया और वापस अपनी मां के पास लौट आया. तब गौ माता ने उसे धिक्कारा और उसे कहा, चल मेरे साथ मग्लेश्वर महादेव स्थित जल कुंड पर अब वहीं स्नान करने पर तुझे अपने पापों से मुक्ति मिलेगी. परशुराम जी भी उस गाय और बछड़े के पीछे-पीछे उस जल कुंड में चले गए और जैसे ही वो कुंड से बाहर निकले उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानों उनकी माता का सिर उनकी पीठ से अलग होकर आकाश में चला गया हो. तब परशुराम जी ने वहां स्थित मंगलेश्वर महादेव की पूजा की और उसके सम्मुख जल कुंड को मां तरी कुंड का नाम दिया. क्योंकि वहीं उनकी माता को मुक्ति और उन्हें मातृहत्या के पाप से मुक्ति प्राप्त हुई थी. कालान्तर में इस कुंड का नाम मातृकुंडिया हो गया और श्रदालु यहां अपने पापों से मुक्ति और अपने दिवंगत परिजनों की अस्थियों को यहां इस मान्यता से लाने लगे, कि उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाएगा.

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