केशवरायपाटन (बूंदी). जिल के उपखण्ड क्षेत्र के कापरेन कस्बे में रविवार को भगवान पार्श्वनाथ का जन्म कल्याणक महोत्सव नसिया जी मन्दिर में धूमधाम से मनाया गया. सुबह श्रीजी की शान्ति धारा की गई. वहीं, शाम को महाआरती की गई. भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थकर हैं. उनकी मूर्ति के दर्शन मात्र से ही जीवन में शांति का अहसास होता है. उनसे पूर्व श्रमण धर्म की धारा को आम जनता में पहचाना नहीं जाता था. पार्श्वनाथ से ही श्रमणों को पहचान मिली. वे श्रमणों के प्रारंभिक आइकॉन बनकर उभरे. पार्श्वनाथ के प्रमुख चिह्न- सर्प, चैत्यवृक्ष- धव, यक्ष- मातंग, यक्षिणी- कुष्माडी आदि है.
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पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग तीन हजार साल पहले पौष कृष्ण एकादशी के दिन वाराणसी में हुआ था. उनके पिता अश्वसेन वाराणसी के राजा थे. इनकी माता का नाम वामा था. उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ. तीर्थकर बनने से पहले पार्श्वनाथ को नौ पूर्व जन्म लेने पड़े थे. पहले जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पांचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) तत्पश्चात दसवें जन्म में उन्हें तीर्थकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: वे तीर्थकर बनें.
भगवान पार्श्वनाथ 30 साल की आयु में ही गृह त्याग कर संन्यासी हो गए. 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई. वाराणसी के सम्मेद पर्वत पर इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था. पार्श्वनाथ ने चार गणों या संघों की स्थापना की. प्रत्येक गण एक गणधर के अंतर्गत कार्य करता था. सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है. यहीं पर जैन धर्म के 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ ने जन्म लिया था और अपने अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया था. उनके अनुयायियों में स्त्री और पुरुष को समान महत्व प्राप्त था.
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कैवल्य ज्ञान के पश्चात्य चातुर्याम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह) की शिक्षा दी. ज्ञान प्राप्ति के उपरांत सत्तर वर्ष तक अपने अपने मत और विचारों का प्रचार-प्रसार किया और सौ वर्ष की आयु में देह त्याग दी. भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है. आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियां देश भर में विराजित है. जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं.
ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे. श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ. ऐसे 23वें तीर्थंकर को भगवान पार्श्वनाथ शत्-शत् नमन्.