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SPECIAL: मानव सभ्यता विकास की साक्षी 'रॉक पेंटिंग' का रंग पड़ रहा फीका, धीरे-धीरे हो रही गायब

पर्यटन के साथ-साथ बूंदी जिला अपने सुंदर शैल चित्रों और भित्ति चित्रों के लिए विश्व प्रसिद्ध है. बूंदी भारत की सबसे बड़ी रॉक पेंटिंग साइटों में से एक है. अनुमान है कि ये भित्ती चित्र 20 हजार वर्ष से ज्यादा पुराने हैं. जो इस बात का प्रमाण हैं कि हाड़ौती पूर्व मानव सभ्यता का साक्षी रहा है. लेकिन गुजरते समय के साथ अब ये चित्र धुंधले होने लगे हैं, जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता है.

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धीरे-धीरे खत्म हो रही देश की एक मात्र रॉक पेंटिंग

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Published : Sep 27, 2020, 9:57 AM IST

बूंदी. पर्यटन के साथ-साथ बूंदी जिला सुंदर शैल और भित्ति चित्रों के लिए विश्व प्रसिद्ध है. और भारत की सबसे बड़ी रॉक पेंटिंग साइटों में से एक है. मानव सभ्यता और उसके विकास की कहानी, भित्ती चित्रों के रूप में बूंदी के भीमलत में मौजूद विशाल चट्टानों पर आज भी मौजूद है. मानव जाती का आश्रय स्थली रही इन चट्टानों में सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को प्रतिबिंबत करती कई तरह के भित्ती चित्र आज भी मौजूद हैं. अनुमान है कि ये भित्ती चित्र 20 हजार वर्ष से ज्यादा पुराने हैं. जो इस बात का प्रमाण हैं कि हाड़ौती पूर्व मानव सभ्यता का साक्षी रहा है.

रॉक पेंटिंग मानव विकास की निरंतरता को भी दर्शाती है. यह बिसन, हिरण और बाघ के साथ शिकार के दृश्यों, संभवतया मेसोलिथिक काल के दैनिक जीवन, मानव आकृति और नृत्य मुद्राओं का भी खुलासा करता है.

धीरे-धीरे खत्म हो रही देश की एक मात्र रॉक पेंटिंग

20 किमी क्षेत्र में शैल चित्र शृंखला फैली हुई

विश्व की सबसे लंबी शैल चित्र शृंखला बूंदी जिले में मौजूद है. बूंदी जिले में करीब 20 किमी क्षेत्र में शैल चित्र शृंखला फैली हुई है. शैल चित्र शृंखला रेवा नदी, मांगली नदी, घोड़ा पछाड़ नदी के चट्‌टानी कगारों पर स्थित है. इसमें हमें पाषाण काल, कृषि युग, लौह युग, ऐतिहासिक काल, जिसमें मौर्य काल, गुप्तकालीन सभ्यताओं व संस्कृतियों के बारे में चित्र व लेख से कई जानकारियां मिलती हैं. इस शृंखला को खोजने का श्रेय बूंदी के पुरा अन्वेषक ओमप्रकाश शर्मा कुक्की को है.

पाषाणयुग के मौजूद हैं चित्र

ओमप्रकाश कुक्की ने की खोज

9 अक्टूबर 1997 में ओमप्रकाश कुक्की ने शैल चित्र खोजने की शुरुआत की. सबसे पहले उन्हें शैल चित्र रामेश्वर महादेव के झरने के ऊपर चट्‌टानी भाग की गुफा में दिखाई दिए. उसके बाद 12 जून 1998 में गरड़दा के शैल चित्रों की खोज की. शृंखलाओं की खोज करते हुए कुक्की हाड़ौती के चप्पे-चप्पे को देख चुके हैं. शैल चित्र भीलवाड़ा जिले के साथ-साथ टोंक जिले में भी मिले. शैल चित्रों में शिकार दृश्य, मानव आकृतियां, वन्यजीव, तीर कमान धारी मानव, सरी सर्प, मांडने, फंदे, चित्रित मंदिर, ज्योमीतिय डिजाइन, रथ, बैलगाड़ियां बनी हुई हैं.

समय के साथ धुंधली हो रही तस्वीर

इन चित्रों की है भरमार

खास बात यह है कि बड़े आकार के रथ में बैलों सहित हिरण भी जुते हुए दिखाई देते हैं. इन चित्रों में शेर, बब्बर शेर के चित्र भी शामिल हैं।इससे यह प्रमाण मिलता है कि यहां के जंगलों में शेर के साथ-साथ बब्बर शेर भी मिलते थे, वर्तमान में बब्बर शेर गुजरात के गिर के जंगल में ही दिखाई देते हैं. यह चित्र हजारों की संख्या मिले हैं, जो कि तत्कालीन समाज की जीवन शैली को दृष्टिगत करते हैं. शैल चित्र लाल, चटक लाल, कथई, गैरू, पीला, सफेद, काला और हरे रंगों से निर्मित हैं. हरे रंग के शैल चित्र दुर्लभ माने जाते हैं. बूंदी के बरड़ क्षेत्र में हरे रंग के शैल चित्र विश्व में सबसे अधिक मात्रा में मिले हैं.

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चित्रों से अनुमान है कि 20,000 वर्ष पुराना इस तथ्य का पर्याप्त प्रमाण है कि हाड़ौती क्षेत्र में प्रारंभिक मानव रहा. हाड़ौती क्षेत्र के बूंदी में इन रॉक पेंटिंग साइटों के लिए एक विशेष महत्व है, लेकिन अब इन स्थानों पर कई असामाजिक तत्व भी पहुंचने लगे हैं. जिसके चलते यह रोक पेंटिंग के शिला पर बने चित्र खराब होने लगे हैं.

रॉक पेंटिंग मानव दर्शाती है विकास की निरंतरता

विश्व धरोवर बनाने की उठ रही मांग

इस हेरिटेज को वापस से सवारने को लेकर सेव हेरिटेज फाउंडेशन के फाउंडर अरिहंत सिंह शेखावत की टीम और इसे खोजने वाले ओम प्रकाश कुक्की ने सरकार से इसे विश्व धरोवर बनाने की मांग करने लगे हैं. सेव हेरिटेज फाउंडेशन के फाउंडर अरिहंत सिंह शेखावत बताते हैं कि संगठन बनाने का मकसद देश-प्रदेश की ऐतिहासिक महत्व की अमूल्य धरोहर को सहेजना है.

फाउंडेशन के युवा अपने स्तर पर पैसा, संसाधन जुटाते हैं. श्रमदान करते हैं, लोगों को प्रेरित करते हैं. आसपास के झाड़-झंकाड़ साफ करते हैं. ऐतिहासिक, धार्मिक विरासत का जीर्णोद्धार, संरक्षण करते हैं. बूंदी की इस हेरिटेज को बचाने के लिए यह युवा सरकार और इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के सामने रखा चुके हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए इन्हें संरक्षित रखा जा सके.

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