बूंदी.तीज त्यौहार, उत्सव, मेले, जहां सांस्कृतिक वैभव का दर्शन करवाते हैं, वहीं ऊंच-नीच, जात-पात, गरीब-अमीर व छोटे-बड़े का भेदभाव मिटाकर सामाजिक एकता व सौहार्द के भाव को संपुष्ट करता है. सामाजिक परिदृश्य में ऐसे आयोजन समय-समय पर होते रहते हैं. ऐसा ही एक आयोजन मकर संक्रांति पर बूंदी जिले के बरुंधन कस्बे में पिछले 800 सालों से होता आ रहा है, जिसे हम दड़ा महोत्सव के नाम से जानते हैं. मकर संक्रांति पर जहां हाड़ौती में पतंगबाजी चरम पर होता है, वहीं 800 साल पुराने बरुंधन गांव में दड़ा का खेल बड़े उत्साह और जोश से खेला जाता हैं, जिसे ग्रामीण परंपरागत तरीके से आज भी खेलते हैं. इस दड़ा महोत्सव में बरुंधन कस्बे के करीब एक दर्जन से अधिक गांवों के विभिन्न समाज के लोग बड़े उत्साह से ऊंच-नीच, जात-पात, गरीबी-अमीरी व छोटे-बड़े का भेदभाव भूलाकर शामिल होते हैं. हर साल मकर संक्रांति पर आयोजित होने वाला दड़ा खेल जोर आजमाइश के साथ ही सामाजिक सौहार्द का भी प्रतीक है.
खेल की शुरुआत से पहले हुई दड़े की विधिवत पूजा-अर्चना :वहीं, रविवार को हाड़ा परिवार के श्याम सिंह हाड़ा, नंद सिंह हाड़ा व भंवर सिंह हाड़ा ने खेल की शुरुआत से पहले सुरा प्रेमी खिलाड़ियों में उत्साह भरने के लिए गाजे बाजे के साथ उन्हें सुरापान कराया. इसके बाद राजपूत मोहल्ले से दड़े को मुख्य बाजार स्थित लक्ष्मीनाथ मंदिर के सामने खेल मैदान में लाया गया, जहां हाड़ा परिवार ने दड़े की विधिवत पूजा-अर्चना कर खेल की शुरुआत की. वहीं, इस खेल में ग्रामीण व युवा बड़े उत्साह से भाग लिए. हालांकि, इस दौरान धक्का मुक्की व खींचतान में कई लोग नीचे गिर गए. इधर, युवाओं के उत्साह को देखकर बुजुर्ग भी अपनी मूछों पर ताव देते नजर आए. कुछ युवकों के नीचे गिरने से उन्हें हल्की चोट भी आई. बावजूद इसके डेढ़ घंटे तक चले दड़ा खेल महोत्सव में ग्रामीणों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया. खेल के दौरान महिलाएं व युवतियां भी रंग-बिरंगे परिधानों में सज धजकर छतों से खेल का आनंद लेती व पुष्प वर्षा कर खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाती नजर आईं.
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जानें क्या है परंपरा :जागाओं की पोथी व बुजुर्गों के अनुसार करीब संवत 1252 के आसपास गांव की बसावट हुई थी. गांव में हाड़ाओं के करीब 60 परिवार रहा करते थे. उनके द्वारा जोर आजमाइश के लिए इस खेल की नींव रखी गई, जिसके लिए टाट, सूत व रस्सी की मदद से गेंद की तरह करीब 35 से 40 किलो वजनी दड़ा तैयार कर मुख्य बाजार स्थल पर चुनौती बनाकर रखा जाता था. खेल में दो दल होते थे, जिसमें एक तरफ हाड़ा परिवार और दूसरी तरफ गांव व आसपास के लोग शामिल होते थे. खेल से पूर्व सुरा प्रेमी खिलाड़ियों को सुरापान करवाया जाता था, जो आज भी अनवरत जारी है. दड़ा महोत्सव में खेल के दौरान ढोल पर लगने वाली थाप खिलाड़ियों में जोश भरने का काम करता है.