बीकानेर. फाल्गुनी मस्ती की बयार बहने लगी है. होली का रंग अभी से होलियारों के सिर चढ़कर बोल रहा है. कहीं चौक चौबारे पर चंग की थाप सुनाई देने लगी है तो कहीं ख्याल और होली के गीत कानों में गूंज रहे हैं. इस सबके बीच बीकानेर शहर के परकोटे में रम्मतों का खुमार भी छाने लगा है जिनका अपना एक अलग रोचक इतिहास है. खान पान के साथ रम्मतें भी तो यहां की सांस्कृतिक विरासत की कहानी कहती हैं. 500 साल से भी ज्यादा का वक्त बीत चुका है लेकिन इनका आकर्षण अब भी बरकरार है.
क्या है रम्मत?- रम्मत बीकानेरियत को समेटे है. राजस्थानी भाषा में खेलने को रमणा कहते हैं. रमणा का ही बिगड़ा रूप है रम्मत. माना जाता है कि इस लोक नाट्य शैली की उत्पत्ति होली के दौरान होने वाली काव्य प्रतियोगिताओं से ही हुई. अब इसका सीधा अर्थ नुक्कड़ नाटक के प्रदर्शन से जोड़ा जाता है. कहा जाता है कि ये सिर्फ एक शहर नहीं बल्कि एक जीवन शैली है. अच्छे बुरे समय में जीया कैसे जाता है उनको खेल खेल में समझाती हैं रम्मतें. होली को महज एक दिन के खेल की तरह ट्रीट नहीं करते, औपचारिकता नहीं निभाते बल्कि कई दिनों पहले इसकी रंगत में सबको सराबोर कर देते हैं. तभी तो यहां एक कहावत बड़े मन से लोग सुनते और सुनाते हैं. जिसमें जीवन की फिलॉसफी भी छुपी है. जो कुछ यूं हैं- जीते जी खेलो फाग, मरया पच्छे होवे राख. इसका आशय है कि जिंदा हो तो फाग खेलो क्योंकि मरने के बाद आदमी राख बन जाता है. कुछ ऐसा ही खिलंदड़ अंदाज फाल्गुन की दस्तक के साथ ही शुरू हो जाता है.
बसंत पंचमी से आगाज-होलाष्टक यानी होली से 8 दिन पहले से रम्मतों का मंचन शुरू हो जाता है. उस दिन हजारों की संख्या में लोग दर्शक के रूप में रम्मतों में शिरकत करते हैं. लेकिन तैयारी 40 दिन पहले से ही की जाने लगती हैं. 40 दिन यानी बसंत पंचमी से रम्मतों का अभ्यास शुरू हो जाता है. पहले दिन से अंतिम दिन तक रम्मत के सभी पात्र हर रोज करीब 3 से 4 घंटे रात में अभ्यास करते हैं