बांसवाड़ा. भारतीय दार्शनिक शोध परिषद नई दिल्ली की ओर से गोविंद गुरु राजकीय महाविद्यालय में 'भील दर्शन' पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जा रही है. सोमवार को पहले दिन देशभर से आए विद्वानों की ओर से इस पर अपने शोध रखे गए. इस मंथन में अधिकांश वक्ताओं का मानना था कि आदिवासी हमारे पूर्वज थे और हम उनकी संतान हैं. साथ ही आदिवासी संस्कृति और दर्शन के संरक्षण की जरूरत निरूपित की गई.
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मौलिकता खोती जा रही ये संस्कृति
प्रारंभ में अतिथियों ने गोविंद गुरु की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्वलन और माल्यार्पण किया. संगोष्ठी का संचालन कर रहे राजनीतिक विज्ञान के सह प्राचार्य महेंद्र मीणा ने इसकी शुरुआत करते हुए कहा कि आदिवासी दर्शन और संस्कृति असमंजस का शिकार है. यह संस्कृति आज भी जीवित है लेकिन अपनी मौलिकता खोती जा रही है. प्रश्न संस्कृति और दर्शन का नहीं है, आदिवासीयत का है. विकास और संस्कृति की उलझन के बीच अब धर्म आ गया है.
आयोजन सचिव डॉक्टर महेंद्र प्रसाद ने कहा कि प्रसन्न रहना और दूसरे दिन की चिंता नहीं करना यह आदिवासी दर्शन है और किसी और संस्कृति में यह गुण नहीं मिलता. विशिष्ट अतिथि दिल्ली विश्वविद्यालय संस्कृति विभाग के डॉ वेदप्रकाश ने कहा कि जिस प्रकार ऑस्ट्रेलिया के ध्वज पर कंगारू और श्रीलंका के झंडे पर शेर का चिन्ह है उसी प्रकार आदिवासी लोगों के ध्वज पर वानर का चिह्न मिलता है. उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं से भी आदिवासियों के प्रकृति पूजन को जोड़ा.
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