बांसवाड़ा. जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर दूर रतलाम मार्ग पर बोर तालाब गांव है. यहां रोड के किनारे लगभग 15 से 20 परिवार निवासरत हैं, जो अपने पैतृक कार्य मिट्टी के बर्तन बनाकर अपना घर-परिवार चलाते हैं. दिवाली को लेकर इन परिवारों ने बड़े पैमाने पर मिट्टी के दीपक बनाने का काम शुरू किया, लेकिन मार्केट में डिमांड कम होने से इन परिवारों का व्यवसाय मंदा पड़ गया है. चाइनीज दीपक और सजावटी लड़ियों पर सरकार द्वारा शिकंजा कसने के बाद इन परिवारों ने बड़े पैमाने पर मिट्टी के दीपक बनाने का काम शुरू किया. इसके लिए कई परिवारों ने आधुनिक तकनीक भी खरीदीं, लेकिन मार्केट मांग नहीं होने के कारण इनका व्यवसाय मंदा पड़ गया है.
बांसवाड़ा में परंपरागत मिट्टी के दीपक की मांग हुई कम कई परिवार मोरबी अहमदाबाद आदि से डिजाइन वाले दीपक लेकर बेच रहे हैं. अलग-अलग डिजाइन के यह दीपक के सामने देशी मिट्टी के दीयों की मांग फीकी पड़ गई है. बातचीत में सामने आया कि मिट्टी के दीपक डिजाइन वाले दीयों के मुकाबले 40 प्रतिशत तक कम कीमत पर बेचे जा रहे हैं. इस कारण कुम्हार समाज के लोगों द्वारा बनाए गए मिट्टी के दीपक घरों से बाहर ही नहीं निकाल पाए है. इन लोगों के पास देशी दीयों का भारी स्टॉक पड़ा है क्योंकि त्योहार का सीजन है और दीपक की काफी डिमांड रहती है.
बता दें कि कोरोना के चलते पिछले 7 महीने से हर व्यापार ठंडा पड़ा हुआ है. कोरोना की मार से मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार समाज के लोग भी अछूते नहीं हैं. भारत चीन सीमा विवाद के चलते केंद्र सरकार द्वारा चीनी वस्तुओं के आयात पर शिकंजा कसने के साथ ही दिवाली पर कुम्हार परिवार के लोगों में कोरोना काल के नुकसान की भरपाई को लेकर नई आस जगी है. कई परिवार पिछले कई दिनों से देशी मिट्टी के दीपक बनाने में जुटे हुए हैं, लेकिन जैसे-जैसे दिवाली नजदीक आई है, उनकी आशाएं धूमिल होती नजर आई है. डिजाइनर दीयों ने उनकी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया है. स्थानीय स्तर पर बनाए गए दीपक के प्रति लोग रुचि नहीं दिखा रहे हैं, जबकि डिजाइनिंग दीपक के मुकाबले यह काफी सस्ते हैं.
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कुम्हार समाज के लोगों ने तत्काल प्रभाव से मोरबी और अहमदाबाद से डिजाइन के दीपक मंगवा लिए हैं. इन लोगों का कहना है कि डिजाइन वाले दीपक के मुकाबले देशी दीयों की 10 प्रतिशत मांग भी नहीं है. इस कारण उनके सामने कोरोना से हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए बाहर से आने वाले दीयों के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. पिछले 50 साल से दीपक बनाने का काम कर रहे गौतम लाल का कहना है कि इसके लिए अलग से मशीन मंगवानी पड़ती है. उनका कहना है कि देशी मिट्टी से इस प्रकार के दीपक नहीं बनाए जा सकते हैं. इसके लिए मिट्टी भी बाहर की ही मंगवानी पड़ेगी.
इनमें से एक देवीलाल प्रजापत ने बताया कि वे बाहर से मिट्टी का बर्तन खरीद कर व्यापार करते हैं. वहीं इन व्यवसायों के बार में रुकी देवी ने भी बताया कि वह भी बाहर से मिट्टी का बर्तन खरीदकर बेचती है, लेकिन इस बार उनका व्यवसाय मंदा है. उन्हें उम्मीद है कि दो-तीन दिनों में उनका व्यवसाय रफ्तार पकड़ेगा. कमला देवी का कहना है कि दिवाली नजदीक आ गई है, लेकिन उनका व्यवसाय नहीं चल रहा है. वह बताती है कि दिवाली से 15 दिनों पहले बर्तन बनाना शुरू कर देती है. वहीं शांति लाल का कहना है कि कोरोना के चलते व्यवसाय मंदा हो गया था, लेकिन दिवाली आने से व्यवसाय में तेजी आएगी. उन्हें उम्मीद है कि चाइनीज सामान के बहिष्कार से उनका व्यसाय बढ़ेगा.
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शांति देवी का कहना है कि डिजाइन वाला दीपक ज्यादा बिक रहा है. सादा वाला कम बिक रहा है. वह बताती है कि सादे वाले दीपक वह स्वयं बनाती है, लेकिन डिजाइन वाले दीपक वह खरीद कर बेचती है. इन सभी परिवारों का घर इन मट्टी के बर्तनों के व्यवसाय पर ही टिका है, दिवली के दौरान इन्हें उम्मीद रहती है कि इनका व्यवसाय ज्यादा होगा और साल भर का खर्च निकल जाएगा, लेकिन कोरोना ने इनके उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. फिर ये लोग आश लगाए हुए हैं कि दिवाली के बचे हुए दिनों दीपक तेजी से बिकेगा.