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स्पेशल: पत्थर से भविष्य संवार रहा सोमपुरा समाज, देश के कई हिस्सों में पहुंच रहीं हैं चमकीले पत्थर की मूर्तियां

राजस्थान न केवल अपने पुरातात्विक महलों और किलों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की शिल्पकारी को भी विश्वभर में ख्याति प्राप्त है. प्रदेश के बांसवाड़ा में रहने वाले सोमपुरा समाज के लोग अपनी बेहतरीन मूर्तिकला से जिले को देशभर में पहचान दिला रहे हैं.

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पत्थर से भविष्य संवार रहा सोमपुरा समाज

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Published : Feb 23, 2020, 9:01 PM IST

बांसवाड़ा.जिला मुख्यालय से करीब 10 किलोमीटर दूर तलवाड़ा को वागड़ अंचल में धर्मनगरी के रूप में जाना जाता है. निकट ही सत्ता की देवी मां त्रिपुरा सुंदरी का मंदिर है, तो तलवाड़ा में भगवान गणेश का विशाल मंदिर है. इस कस्बे में साल भर कोई न कोई धार्मिक आयोजन का सिलसिला चलता रहता है. इस धर्म नगरी को सोमपुरा समाज के लोग एक और नई पहचान दे रहे हैं. अपनी मूर्ति कला के बल पर आज सोमपुरा समाज के लोग राजस्थान ही नहीं, बल्कि देश-विदेश में भी मशहूर हो रहे हैं.

पत्थर से भविष्य संवार रहा सोमपुरा समाज

सफेद पत्थर पर यहां के लोग मशीनों को इस प्रकार चलाते हैं कि देखते ही देखते देवी देवताओं के अलावा महापुरुषों का आकार ले लेती है. कुल मिलाकर यह कला आज खानदानी कला का रूप ले चुकी है और नई पीढ़ी के लोग भी इसे आगे बढ़ा रहे हैं.

500 पुराना है इतिहास

करीब 500 साल पहले सोमपुरा समाज के कुछ लोगों ने आसपास मिलने वाले सफेद पत्थर पर मूर्ति गढ़ाई का काम शुरू किया था. पहले छैनी-हथौड़े से पत्थरों को मूर्ति का आकार दिया जाता था. धीरे-धीरे करते परिवार के अन्य लोग भी इसमें हाथ अजमाने लगे और आज उनके हाथों में मशीनें आ चुकी है. जो काम एक 1 महीने तक नहीं हो पाता था, वह आज 8 से 10 दिन में पूरा कर लिया जाता है.

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मां त्रिपुरा सुंदरी रास्ते पर आपको पत्थरों को मूर्ति का रूप देते यहां काफी लोग मिल जाएंगे. कोई बड़े-बड़े पत्थरों को काट रहा है, तो कोई मूर्ति का शेप दे रहा है. कोई अन्य उसे फिनिशिंग देकर चमका रहा है. मूर्ति कला को नई ऊंचाई प्रदान कर रहे सोमपुरा समाज के लोगों के अनुसार मशीनों के बाद इस व्यवसाय में कंपटीशन बहुत बढ़ गया है, लेकिन अब राजस्थान ही नहीं देश के अन्य हिस्सों तक भी हमारी कला का डंका बज चुका है. ऐसे में ज्यादा कोई दिक्कत नहीं आती और व्यवसाय चलता रहता है. सबकी अलग-अलग पार्टियां होती है. उनके ऑर्डर के हिसाब से काम करते रहते हैं.

50 से 60 परिवार करते हैं मूर्तियां बनाने का काम

करीब 50 से 60 परिवार के लोग मूर्तिकला को नई ऊंचाइयां प्रदान कर रहे हैं. इसके अलावा 100 से डेढ़ सौ तक अन्य लोगों को भी रोजगार मुहैया करा रहे हैं. करीब 40 साल से बतौर मूर्ति कार की पहचान बना चुके प्रभा शंकर कहते हैं कि 500 साल पहले हमारे पुरखों ने यह काम शुरू किया था, जो आज तक चल रहा है. जैसे-जैसे प्रसिद्धि मिलती गई समाज के नए युवा जोकि रोजी रोटी के लिए आज से बाहर चले गए थे. फिर तलवाड़ा लौटे और अपने पुरखों के काम को आगे बढ़ा रहे हैं.

कल्पना से मिलता आकार

गिरजा शंकर का कहना है, कि किसी पत्थर को मूर्ति का रूप देना हो तो सबसे पहले संबंधित व्यक्ति की कल्पना मन में लाना जरूरी है. जैसे-जैसे भाव पैदा होंगे वैसे वैसे मूर्ति निखर कर सामने आती जाएगी. मशीनरी आने के बाद हमें काफी सहूलियत मिली है, लेकिन अब हमारी आगे की पीढ़ी इसमें ज्यादा इंटरेस्ट नहीं दे रही है. क्योंकि दिन भर भ्रष्ट उठती रहती है, जिससे अस्थमा की प्रॉब्लम बढ़ जाती है. सेलिंग में भी कई प्रकार की समस्याएं आती है. इस कारण आने वाली पीढ़ी इससे मुंह मोड़ रही है.

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युवा पीढ़ी नहीं ले रही रूचि

लोकेश सोमपुरा के अनुसार 1978 में हरी लाल सोमपुरा ने राजस्थान की तीन बार कमान संभाल चुके हरिदेव जोशी की मदद से ट्रेनिंग सेंटर शुरू किया था. जिसमें समाज के 15 से 20 लोगों को इसकी ट्रेनिंग दी गई. उसके बाद से मशीन का युग आ गया और धीरे-धीरे युवा पीढ़ी भी जुड़ती गई लेकिन अब युवा वर्ग रुचि नहीं ले रहा है और अन्य व्यवसायों में अपना भविष्य तलाश रहा है.

लोकेश के अनुसार अब प्रदेश के साथ-साथ गुजरात मध्य प्रदेश महाराष्ट्र कर्नाटक तक मूर्तियों के साथ-साथ मंदिरों के काम भी मिलने लगे हैं. पैसा तो अच्छा मिल जाता है, लेकिन मेहनत के मुकाबले कम ही लगता है. जिन लोगों की आजीविका का आधार मूर्तियां ही बन गई हैं, वे इसे आगे बढ़ा रहे हैं.

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