बांसवाड़ा.आजादी के आंदोलन में बड़े सामूहिक नरसंहार का नाम आते ही हमारे सामने जलियांवाला बाग कांड का चित्र उभर कर सामने आता है. जिसमें करीब 400 लोग अंग्रेजी हुकूमत की गोलियों का शिकार हुए थे. ईटीवी भारत आज आपको इससे भी एक बड़े नरसंहार के बारे में बताने जा रहा है. जिसमें इससे भी 3 गुना ज्यादा लोग अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए शहीद हुए थे. लेकिन घने जंगल और अशिक्षा की वजह से यह नरसंहार इतिहास के पन्नों पर नाम दर्ज नहीं करा पाया.
जलियांवाला बाग से भी जघन्य था मानगढ़ धाम कांड..देखिए स्पेशल रिपोर्ट दक्षिण राजस्थान में गुजरात सीमा पर स्थित मानगढ़ धाम आज भी हमें अंग्रेजी हुक्मरानों की खिलाफत के बाद तोपों और गोलियों की बौछार से सैकड़ों आदिवासी लोगों की शहादत को याद दिलाता है. यह स्थान चारों ओर घने जंगलों से घिरा है. जिस की फिजाओं में आज भी उस नरसंहार के संबंध में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आग लगाने वाला 'ओ भूरेटिया नय मानू रे, नय मानू' गीत गुंजायमान है. जिसे सुनकर आदिवासी लोगों की बाहें फड़फड़ा उठती है. बांसवाड़ा जिले में आने वाले जनजाति वर्ग के आराध्य गोविंद गुरु की यह पावन स्थली जिला मुख्यालय से करीब 70 किलोमीटर दूर गुजरात के कडाणा बांध के केचमेंट एरिया में स्थित है.
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तोप और गोलियों से छलनी हुए थे 1500 लोग
स्थानीय लोगों के अनुसार गोविंद गुरु सामाजिक होने के साथ-साथ धार्मिक व्यक्ति थे और आदिवासियों में नशा मुक्ति और शाकाहार को लेकर आंदोलन चला रहे थे. शिक्षा की अलख जगाते देखकर सामंत और रियासत के लोग घबरा गए, क्योंकि आदिवासी वर्ग में अब बंधुआ मजदूरी और लगान के खिलाफ भी आक्रोश भड़क रहा था. ऐसे में इन लोगों ने अंग्रेजों को भड़काया और बरसों से मानगढ़ पहाड़ी पर धूनी डालकर सामाजिक और धार्मिक आंदोलन कर रहे गोविंद गुरु से पहाड़ी खाली कराने का दवाब डाला. गोविंद गुरु ने इसे 1903 में अपना ठिकाना बनाया था. अंग्रेजों ने नवंबर 1913 में जब जमीदारों और अपनी फौज के साथ पहाड़ी को घेरने पहुंचे उस समय धूनी पर लाखों आदिवासी लोग संप सभा में पहुंचे थे. जो कि एक धार्मिक आंदोलन था. तमाम प्रयासों के बावजूद भी जब गोविंद गुरु पहाड़ी को खाली करने को तैयार नहीं हुए तो अंग्रेजों ने 17 नवंबर को लगभग 200 मीटर दूर पहाड़ी से गोले दागे और अपनी बंदूकों से निहत्थे लोगों को अपनी गोलियों का शिकार बनाया. जिसमें करीब 15 सौ लोग मारे गए. वहीं 2,000 से अधिक घायल हो गए. इसके साथ ही अंग्रेजों ने गोविंद गुरु को गिरफ्तार कर लिया और अहमदाबाद ले गए जहां से उन्हें काला पानी की सजा दी गई.
2008 के बाद सामने आया मानगढ़ धाम का गौरवशाली इतिहास
वर्ष 2008 में तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार में बागीदौरा बांसवाड़ा से निर्वाचित विधायक महेंद्रजीत सिंह मालवीय को कैबिनेट में शामिल किया गया. मालवीय ने मानगढ़ के इतिहास को जानने की दृष्टि से अधिकारियों का एक दल नई दिल्ली भेजा. जहां उनके हाथ मानगढ़ के संबंध में एक दस्तावेज हाथ लगा. मेजर हैमिल्टन ने इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया था और उसमें करीब 15 सौ लोगों के मारे जाने का उल्लेख था. उसके बाद से मालवीय ने मानगढ़ धाम को लेकर इतिहास को और खंगलवाया. गोविंद गुरु के नाम से बांसवाड़ा में संचालित विश्वविद्यालय में गोविंद गुरु के जीवन दर्शन संबंधी पुस्तक में उसे स्थान दिया गया.
लाखों लोगों की आस्था का केंद्र है मानगढ़ धाम
आज यह स्थान राजस्थान के अलावा गुजरात और मध्य प्रदेश के लाखों आदिवासी लोगों की आस्था का केंद्र बन गया है. 1913 में हुए नरसंहार का इतिहास सामने आने के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने भी इस स्थल का विकास का खाका खींचा और आज यह प्रदेश का एक प्रमुख पर्यटन केंद्र बन गया है. करोड़ों की लागत से शहीदों की याद में स्मारक बनाया गया. वहीं गोविंद गुरु की धूनी वाले स्थल को शामिल करते हुए करीब 3 किलोमीटर के एरिया में विभिन्न प्रकार के विकास कार्य करवाए जा रहे हैं. वन विभाग की ओर से गोविंद गुरु की स्मृति में स्मृति वन तैयार किया गया है. वहीं एक हेलीपैड भी बनवाया गया. यहां प्रतिदिन बड़ी संख्या में सैकड़ों पर्यटक पहुंचते हैं. वहीं आदिवासी लोग अपने आराध्य गोविंद गुरु की प्रतिमा की पूजा अर्चना करते हैं. इस झोपड़ी में गोविंद गुरु के जीवन चक्र पट्टिका पर उल्लेखित है. इस पहाड़ी के दूसरी ओर गुजरात का संतरामपुर जिले की सीमा है. जहां पर होटल्स दुकानों आदि का निर्माण हो चुका है.
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2008 के बाद मानगढ़ धाम ने पकड़ी विकास ने गति
मानगढ़ धाम को लेकर स्थानीय ग्राम पंचायत आमलिया के सरपंच पर्वत सिंह का कहना है कि 2008 के बाद विकास ने गति पकड़ी है. अब हमारी मांग है कि से राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिलवाया जाए. वहीं पूर्व मंत्री और बागीदौरा विधायक मालवीय के अनुसार यह कांड जलियांवाला बाग कांड से भी बड़ा था. लेकिन जंगली इलाका होने और अशिक्षा के कारण इतिहास के पन्नों पर नहीं आ पाया. मैंने जब 2008 में कैबिनेट मंत्री का कार्यभार संभाला तो इसके इतिहास को जानने का प्रयास किया. मेरा अभी प्रयास है कि इसे अब राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया जाए, ताकि देशभर के आदिवासी लोग अपने इतिहास को देख सकें.