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Special : स्कूल बंद, वेतन नहीं, शिक्षक बना रहा मिट्टी के दीपक

दीपावली का त्योहारी सीजन भी कोरोना संक्रमण की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है. अजमेर में दीपक तैयार करने वाले प्रजापति समाज के लोग मायूस हैं. सीजन में यहां से बिकने के लिए 2 लाख से ज्यादा दीपक बाहर के जिलों में जाया करते थे, इस बार यह आंकड़ा अभी तक 500 भी नहीं पहुंचा है. केकड़ी में विज्ञान के शिक्षक प्रिंस प्रजापति स्कूल बंद होने के कारण घर में बैठे हैं, तंगी के इस दौर में चाक से कुछ राहत मिलने की उम्मीद थी, लेकिन फिलहाल त्योंहार का बाज़ार ठंडा है.

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स्कूल बंद, मजबूर शिक्षक बना रहा दीपक

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Published : Nov 10, 2020, 11:37 AM IST

Updated : Nov 10, 2020, 12:24 PM IST

अजमेर.दीपों के उत्सव दीपावली को लेकर बाजार में काफी चहल-पहल होने लगी है. दूसरी तरफ मिट्टी की दीपक बनाने के रोजगार से जुड़े प्रजापति समाज के लोग भी इस प्रयास में लगे हुए हैं कि उनकी दीपावली कहीं फीकी न रह जाए. लिहाजा त्योंहार पर घरों को रोशन करने वाले दीपक तैयार किए जा रहे हैं.

अजमेर में स्कूल बंद, दीपक गढ़ रहा शिक्षक

दीपावली पर्व को लेकर हर तरफ खुशी और उल्लास दिखाई देने लगा है. इस त्योंहार आभूषण, वस्त्र, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, फर्नीचर और बर्तन आदि सामान की खरीदारी होती है लेकिन सबसे ज्यादा महत्व इस पर्व पर मिट्टी के दीपक का होता है. जिले में कुम्हार समाज के लोग दीपावली पर दीपकों से घरों को रोशन करने के लिए तैयारियों में जुट चुके हैं. बाजार में दीपकों और मिट्टी के अन्य सामान की बिक्री करवा चौथ के पर्व से ही शुरू हो गई थी. दीपावली पर्व के मद्देनजर विभिन्न साइज के दीपक गढ़ने के लिए जुटे कुम्हार रात दिन काम कर रहे हैं.

मिट्टी खरीदकर बनाते हैं दीपक...

अजमेर में मिट्टी के दीपक बनाने के रोजगार से जुड़े कारीगर हरिकिशन का क कहना है कि कुम्हार को दीपक बनाने के लिए ढाई से तीन हजार रुपए में चिकनी मिट्टी की ट्रॉली खरीदनी पड़ती है. बीस-तीस साल पहले यह मिट्टी आसपास के इलाकों में आसानी से मुफ्त में ही उपलब्ध हो जाती थी, अब अगर मिट्टी की कीमत चुकाकर भी कारीगर मुनाफा नहीं कमा पाएं, तो संस्कृति - रीती- रिवाज को जीवित रखना भी मुश्किल काम हो जाएगा। हरिकिशन का कहना है कि मोल ली हुई मिट्टी से तैयार एक दो रुपए के दीपकों की खरीददारी करते समय भी लोग मोलभाव करने लगते हैं.

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शिक्षित अध्यापक चाक चलाने पर मजबूर...

अजमेर के केकड़ी में निजी विद्यालय में विज्ञान अध्पयपक के पद पर कार्यरत प्रिंस प्रजापति बताते हैं कि चाक चलाना हमारा पारंपरिक काम है, कोरोनाकाल में स्कूलों के दरवाजे बंद हो गए. ऐसे में निजी संस्थानों में तैनात शिक्षकों के लिए बिना वेतन घर चलाना काफी मुश्किल काम हो गए है. ऐसे हालात में अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए पढ़े लिखे शिक्षित अध्यापक प्रिंस प्रजापति मजबूरी में अपने पीढीगत परंपरागत काम पर लौट आए हैं, मजबूरी में दीपक बना रहे हैं, ताकि दो वक्त की रोटी का तो जुगाड़ हो.

53 परिवार जुड़े हैं दीपक बनाने के काम से...

कारीगर हरिकिशन बताते हैं कि इलाके में लगभग 53 परिवार परंपरागत तौर पर दीपक बनाने का काम करते हैं. लेकिन इस बार दीयों की दीपावली सूनी नजर आ रही है. उन्होंने कहा कि इस बार त्योंहार पर पहले जैसी रंगत नहीं है. इसलिए बहुत कम कागीगर इस बार दीपक बनाने की हिम्मत जुटा रहे हैं. क्योंकि कोरोना संक्रमण के इस दौर में बाजार ठंडे हैं. ऐसे में तैयार दीपकों और अन्य सामान की बिक्री अगर नहीं हुई तो जेब से लगी रकम और मेहनत, दोनों बेकार चली जाएंगी. इलाके के लोगों का कहना है कि पहले चाइनीज लाइटों ने कुम्हारों के काम पर कुठाराघात किया है और अब कोरोना संक्रमण ने उनके काम की कमर तोड़ दी है.

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दीपावली पर 2 लाख दीये जाते थे अजमेर से बाहर...

प्रिंस प्रजापति का कहना है कि आम तौर पर दीपावली के सीजन में इस इलाके से करीब 2 लाख दीपक तैयार किये जाते थे, जो अजमेर से बाहर के जिलों के बाजारों में बिकने के लिए जाते थे. लेकिन इस बार 500 दीपक बिकना भी मुश्किल लग रहा है. प्रिंस ने कहा कि बिक्री नहीं होने की आशंका के चलते 53 परिवारों में से गिने-चुने दो से चार परिवार ही इस बार दीपक बना रहे हैं. कुछ परिवार मिट्टी के कुल्हड़ बनाने में लगे हुए हैं. उनका तर्क है कि कोरोना संक्रमण महामारी के बीच चाय की दुकानों पर कुल्हड़ का प्रचलन अधिक है, इसलिए दीपक नहीं लेकिन कुल्हड़ कभी न कभी बिक ही जाएंगे.

काम में जुटता है पूरा परिवार...

अजमेर के जादूगर क्षेत्र में रहने वाले कुम्हार परिवार बताते हैं कि इस काम में पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी अपनी भागीदारी निभाती हैं. पूरा परिवार इसी काम में लगा रहता है. मिट्टी के दीपक बनाने का यह काम आसान नहीं है. इसमें काफी समय लगता है. पहले चिकनी मिट्टी को बारीक कूटकर पानी में भिगोया जाता है. इसके बाद चाक पर सधे हुए हाथों से दीपक तैयार किए जाते हैं. बाद में कच्चे दीपकों को गर्म भट्टी में रखा जाता है. लोकल को वोकल बनाने की मुहिम को व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिए बेहतर होगा कि हम अपने त्योंहारो पर लघु और पारंपरिक लोगों के हुनर को प्राथमिकता देते हुए वस्तुएं खरीदें और 'रस्ते का माल सस्ते में' खरीदने का लालच छोड़कर दीपकों की खरीद में मोल-भाव न करें.

Last Updated : Nov 10, 2020, 12:24 PM IST

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