अजमेर.विश्व विख्यात सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह दुनिया में सूफीयत का सबसे बड़ा केंद्र है. लेकिन ख्वाजा गरीब नवाज के सूफी संत बनने का सफर काफी मुश्किलों भरा रहा है. इराक के संदल शहर से ख्वाजा का सूफी बनने का सफर शुरू हुआ था. हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर वो अजमेर पंहुचे और ताउम्र यही के होकर रह गए. उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति को उन्होंने मोहब्बत और इंसानियत का पैगाम दिया. गरीब और असहायों का दुख दर्द दूर करने के कारण ही लोग उन्हें ख्वाजा गरीब नवाज कहने लगे. सदियां बीत गई आज भी ख्वाजा गरीब नवाज देश और दुनिया में करोड़ों लोगों के दिल पर राज करते हैं.
ख्याजा का सफरनामा:सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का जन्म इराक के संदल शहर में हुआ था. 14 साल की आयु में उनके माता-पिता इस दुनिया से रुखसत हो गए. ऐसे में गुजारे के लिए चिश्ती बागवानी किया करते थे. एक दिन एक संत इब्राहिम कंदोजी से उनकी मुलाकात हुई. इसके बाद उनमें रुहानियत आई. उन्होंने अपना बाग और पवन चक्की बेच दिया. जिससे मिले पैसों को उन्होंने गरीब, यतीमों में बाट दिए और कुछ पैसे अपने पास रख कर हज करने के लिए निकल गए. मक्का के बाद मदीना में उन्होंने हाजरी दी. यहां उन्हें उस्मानी हारूनी नाम के पीर मिले. जहां से उन्होंने ख्वाजा गरीब नवाज को उनके फुफेरे भाई ख्वाजा फखरुद्दीन गुर्देजी को एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने के लिए कहा.
मोहब्बत और इंसानियत का दिया पैगाम:दोनों भाइयों को ख्वाजा उस्मानी हारूनी ने हिंदुस्तान जाने के लिए कहा. पीर के कहने पर दोनों भाई हिंदुस्तान के लिए रवाना हुए. दोनो भाई बगदाद से ईरान और इराक होते हुए समरकंद, बुखारा के रास्ते काबुल, कांधार तक पंहुचे और फिर वहां से ताशकंद गए. लेकिन यहां उन्हें पता चला कि हिंदुस्तान उस तरफ नहीं है. तब वह ताशकंद से वापस काबुल लौटे और फिर लाहौर, दिल्ली होते हुए अजमेर आए. खादिम सैयद फकर काजमी ने बताया कि उस वक्त सम्राट पृथ्वीराज चौहान का जमाना था. उन्होंने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज ने 80 से 82 साल का एक लंबा समय अजमेर में ही गुजारा. अपने पूरे जीवन के सफर में ख्वाजा गरीब नवाज ने लोगों को आपसी मोहब्बत और इंसानियत का पैगाम दिया.
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एक ही लिबास में बीता दी जिंदगी:काजमी बताते हैं कि सूफी संत का कोई मजहब नहीं होता है. वो तो मजहब से काफी ऊपर उठ जाता है. उसका मजहब केवल व केवल इंसानियत होता है. उन्होंने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज यही पर झोपड़ी में रहते थे, जहां आज उनका मजार है. यही पर लोग उनसे मिलने आया करते थे. यही उनका विसाल हुआ और उन्हें गुसल दिया गया और उन्हें यही दफनाया गया. उन्होंने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज ने उस दौर में व्याप्त रूढ़िवादी परंपराओं से लोगों को निकाला. गरीब, यतीम और असहाय लोगों के दुख दर्द दूर किए. उन्होंने लोगों को मोहब्बत, भाईचारे के साथ रहने की सीख दी. बिना भेदभाव किए ख्वाजा गरीब नवाज ने सभी को अपना बनाया. उन्होंने बताया कि अजमेर आने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज ने ताउम्र जौ का दलिया ही खाया. वहीं, एक ही लिबास में पूरी जिंदगी बीता दी.