सीकर.देश की बढ़ती आबादी के साथ ही खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों की चिंता का हिस्सा रही है. खेती में सालों से यूज हो रहे रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल से जमीन के ऊवर्क क्षमता में आई कमी भी कृषि विशेषज्ञों के साथ ही सरकारों की नींद उड़ा चुकी है. जब ईटीवी भारत ने कृषि विशेषज्ञों की राय जानी तो ये सामने आया, कि उर्वरक और कीटनाशक के सही इस्तेमाल की जानकारी नहीं होने से ना सिर्फ किसान को बल्कि खेती के लिये इस्तेमाल होने वाली जमीन को भी नुकसान पहुंच रहा है.
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कीटनाशक दवा विक्रेताओं की सलाह पर किसान करते हैं खेती
ये बात भी सामने आई, कि किसान, कीटनाशक दवा विक्रेताओं की सलाह का इस्तेमाल खेती में करते हैं, जिसका कोई सैट फॉर्मूला नहीं होता है. ऐसे में जमीन बंजर होने की कगार पर है. इसके लिये बाकायदा कृषि विभाग ने पर्यवेक्षकों की भी नियुक्ति की है, लेकिन प्रदेशभर में इनके पद रिक्त होने के कारण सरकारी और विशेषज्ञों की सलाह की जगह किसान को दवा बेचने वाले व्यापारियों की सीख पर चलना पड़ता है और इसका नुकसान भी होता है. हमने जब सीकर जिले में कृषि पर्यवेक्षकों की पदों को लेकर जानकारी जुटाई , तो पता चला कि बड़ी संख्या में यहां कृषि पर्यवेक्षकों के पद खाली पड़े हैं. एक अनुमान के मुताबिक प्रदेशभर में कृषि दवा विक्रेताओं की 8 हजार के आस-पास गैर सरकारी दुकानें हैं. जिनसे 75 फीसदी किसान सलाह लेकर अपने खेतों में खाद और दवा के नाम पर रसायनों का इस्तेमाल करते हैं. नतीजतन एक बारगी जमीन से बेहतर उपज भले ही मिल जाती है, लेकिन जमीन की उर्वरक क्षमता खत्म हो जाती है.
कृषि पर्यवेक्षक किसानों को देते हैं खाद-बीज की जानकारी
जिस गांव में ईटीवी भारत की टीम पहुंची, वहां धरातल पर सरकारी प्रयास तोषजनक रहे. सरकारी स्कीम के तहत हर पंचायत में करीब 50 हैक्टेयर जमीन का चुनाव करना होता है. जिसमें 25 हजार रुपए सालाना की मदद के हिसाब से हर एक हैक्टेयर पर एक किसान को चुना जाता है. कृषि पर्यवेक्षक इन किसानों को ना सिर्फ समय पर बेहतर खाद-बीज के चुनाव की जानकारी देते हैं, बल्कि मौसम के हिसाब से ऑर्गेनिक प्रोसेस से तैयार कीटनाशक के छिड़काव और मात्रा को भी बताते हैं. खुद किसान भी मानते हैं, कि इससे उनकी लागत में कमी आई और खेत की मिट्टी में गुणवत्ता बढ़ी है.