जमशेदपुर/जयपुर.पूर्वी सिंहभूम जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर बोड़ाम प्रखंड में एक गांव है अंधार झोर. शहर की चकाचौंध से दूर कच्ची-पक्की सड़कों से होते हुए इस गांव में पहुंचने पर यहां तबला, ढोलक और नगाड़े जैसे वाद्य यंत्रों की आवाज गूंजती मिलेगी. दरअसल इस गांव के लोगों का ये पुस्तैनी काम है. अंधार झोर में पारंपरिक वाद्य यंत्र बनाने का काम करीब दो सौ साल पहले से किया जा रहा है. यहां बनाए गए तबलों को उस्ताद जाकिर हुसैन सहित कई मशहूर कलाकारों ने भी बजाया है. इस काम के लिए यहां के कारीगरों को कई संस्थाएं सम्मानित कर चुकी हैं. यहां के वाद्य यंत्र पंजाब, ओडिशा, पश्चिम बंगाल तक मशहूर हैं.
कारीगर मेघनाथ रुहीदास बताते हैं, कि पहले इस गांव के चारों तरफ घना जंगल था, जिससे गांव में अंधेरा रहता था. यही वजह है, कि इस गांव का नाम अंधार झोर पड़ा. इस गांव में शुरू से ही वाद्य यंत्र को बनाने का काम किया जाता रहा है. गांव की पुरानी परंपरा को देखते हुए अंधार झोर को ढोलकपुर भी कहा जाता है. अंधार झोर गांव में ग्रामीण ढोल, नगाड़ा, मांदर, मृदंग, तबला, ढोलकी और सिंघ बाजा बनाते हैं. वाद्य यंत्र बनाने के लिए जंगल से लकड़ी और बाजार से दूसरे जरूरी सामान लाकर इसे बड़ी मेहनत से तैयार किया जाता है.
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कारीगरों की मुश्किल
इस पुस्तैनी काम से अब कारीगरों का मोहभंग होने लगा है. गांव में 70 परिवार रहते हैं, जिनमे सिर्फ 15 परिवार ही अब पारंपरिक वाद्य यंत्र बनाते हैं. कारीगरों की मानें तो नई तकनीक के वाद्य यंत्रों के कारण पारंपरिक वाद्य यंत्र के बाजार पर असर पड़ा है. उनका ये भी कहना है, कि शास्त्रीय संगीत में तबला का महत्व है, लेकिन अब तबला बजाना सीखने वालों में कमी आई है. ऐसे में उचित कीमत नहीं मिलने के कारण कारीगर झोपड़ी में रहने को मजबूर हैं और पुस्तैनी काम छोड़कर मजदूरी करने लगे हैं. वहीं कुछ ग्रामीण सरकार से मदद की आस लगाए बैठे हैं और किसी तरह इस पुस्तैनी पेशे को बचाने की कोशिश कर रहे हैं.