जयपुर.राजस्थान संस्कृति और गंगा जमुनी तहजीब की एक ऐसी विरासत है, जो लंबे समय से चली आ रही है. इसी विरासत के चलते राजस्थान पूरी दुनिया मे अपने रंग बिखेरता है. जयपुर मे इन दिनों गणगौर की धूम है. पति की लंबी उम्र के लिए रखे जाने वाले उपवास और 16 दिन के गणगौर पूजन (celebration of gangaur puja in jaipur) की अपनी अलग ही कहानी है. यहां जानिए गणगौर पूजन के पीछे की कहानी...
लोकउत्सव अपने आप में विरासत:राजस्थान का नाम सुनते ही मन अपने आप ही आनंदित हो उठता है. जहां एक तरफ राजस्थान के बहादुर योद्धाओं की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है तो वहीं यहां के पर्व-त्योहार और संस्कृति भी अपने आप में अलग ही महत्व रखते हैं. राजस्थानी परंपरा के लोकत्सव अपने आप में एक पुरानी विरासत को संजोए हुए है. गणगौर भी राजस्थान का ऐसा ही एक प्रमुख लोक पर्व है. प्रदेश (16 day long gangaur puja 2022) भर में इन दिनों गणगौर उत्सव की धूम दिखाई दे रही है.
गांव देहात से शहर के होटलों में गणगौर की धूम:चैत्र कृष्ण ग्यारस से मनाए जाने वाले गणगौर पर्व की धूम गांव-देहात के कांकड़ से होकर शहर, बस्ती, कॉलोनियों और अब तो होटलों और गार्डनों तक पहुंचने लगी है. जिस स्वर और साधना की जुगलबंदी से ग्रामीण परिवेश जीवंत रहता है, यही रंग बिरंगी छटा इन दिनों राजस्थान के शहरों में भी देखने को मिल रही है. सुहागिनों के मेहंदी से रचे हाथ, नए रंग-बिरंगे परिधान, नाक में नथ, माथे पर दमकता टीका और लकदक श्रृंगार के साथ गणगौर बाबुल के आंगन में छम-छम कर डोलती हैं. बहुओं के महावर रचे पैरों की थिरकन, छनकती पायलें और ढोलक की थाप पर ऐसी झंकार छिड़ती है कि माहौल संगीतमय हो जाता है.
शिव और पार्वती की कहानी है गणगौर:सामाजिक कार्यकर्ता विनीत शेखावत बताती हैं कि होली के दूसरे दिन से गणगौर की पूजा शुरू हो जाती है. 'गण' का अर्थ है शिव और 'गौर' का अर्थ गौरी या पार्वती. गणगौर पर्व का संबंध शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना से है. गौर अर्थात पार्वती का एक नाम रणुबाई भी है. रणुबाई का मायका मालवा और ससुराल राजस्थान में था. उनका मन मालवा में इतना रमता कि ससुराल रास ही नहीं आता था, लेकिन विवाह के बाद उन्हें ससुराल जाना पड़ा. होली पर जब वो पहली बार मायके आई तो वो तब तक ससुराल नहीं गई जब तक शिव उन्हें लेने नहीं आए. शिव से दूर पार्वती उनकी उम्र की कामना के लिए मिट्टी की गणगौर बना कर पूजा करती थी. जब शिव 16 दिन बाद पार्वती को लेने आए तो मालवा की महिलाओं ने इस दिन को उत्सव के रूप में मनाया था. तभी से यह पर्व मनाने की परंपरा चली आ रही है.
पढ़ें-चैत्र नवरात्रि में मां ब्रह्मचारिणी की उपासना, ब्रह्मचर्य पालन की मिलती है प्रेरणा
फूलपाती का पर्व से जुड़ा महत्व:हंसा राठौड़ बताती हैं कि चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाए जाने वाले इस उत्सव से फूलपाती का पर्व भी जुड़ा है. महिलाएं और कुंवारी युवतियां परंपरागत गीत गाती हैं, नदी, तालाब, कुंओं या बाग-बगीचों तक जाती हैं. वहां से कलश या लोटे में जल भरकर और फूल-पत्तियों से उसे सजाकर लेकर आती हैं, जिससे सुख-समृद्धि की कामना जुड़ी है. इसके बाद हरी घांस पत्तियों को हाथ में लेकर गीतों के साथ गणगौर पूजा की जाती है.
हंसा बताती हैं कि राजस्थान की महिलाएं चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हों, गणगौर के पर्व को पूरे उत्साह के साथ मनाती हैं. विवाहिता हो या कुंवारी सभी आयु वर्ग की महिलाएं गणगौर की पूजा करती हैं. होली के दूसरे दिन से सोलह दिनों तक लड़कियां प्रतिदिन प्रातः काल ईसर-गणगौर को पूजती हैं. जिस लड़की की शादी हो जाती है वो शादी के प्रथम वर्ष अपने पीहर जाकर गणगौर की पूजा करती है. इसी कारण इसे सुहागपर्व भी कहा जाता है. कहा जाता है कि चैत्र शुक्ला तृतीया को राजा हिमाचल की पुत्री गौरी का विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ था. उसी की याद में यह त्योहार मनाया जाता है.
पढ़ें-16 दिवसीय गणगौर पूजन की शुरूआत, 4 अप्रैल को मनाया जाएगा महोत्सव