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Maharana Pratap Jayanti 2022: हिंदुआणा सूरज की जयंती आज, राणा के रण कौशल की दूसरी नहीं कोई मिसाल - Haldi ghati Battle and Maharana Pratap

आज महाराणा प्रताप की जयंती (Maharana Pratap Jayanti 2022) है. वो वीर जिसने मुगलिया सल्तनत की आंखों में आंखें डालने की जुर्रत दिखाई. दिखाई ही नहीं बल्कि उसे अपने रणकौशल (Hindua Suraj Bravery) से पस्त भी कर दिया. मेवाड़ का चप्पा चप्पा उस गुजरे वक्त की, वीर राणा और उनके बेहद खास चेतक को अपने में समेटे हुए है. इतिहासकारों का क्या सोचना है इस हिंदुआ सूरज के बारे में, कैसे हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा ने अपना लोहा मनवाया! उनके जीवन से जुड़े खास पहलुओं पर एक रिपोर्ट...

Maharana Pratap Jayanti 2022
हिंदुआणा सूरज की जयंती आज

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Published : Jun 2, 2022, 7:34 AM IST

जयपुर.शिक्षा जगत से लेकर विभिन्न धारावाहिकों और फिल्मों में महाराणा प्रताप की जीवन (Maharana Pratap Jayanti 2022) के कई पहलुओं को दिखाया जा चुका है फिर भी कुछ ऐसी रोचक बातें हैं जो शायद आप जानते न हों. ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को महाराणा प्रताप की जयंती होती है. राणा के जीवन से जुड़े रोचक किस्सों (Facts about Battle of Haldi Ghati) को इतिहासकार आनंद शर्मा ने अपनी नई किताब 'हिंदुआणा सूरज महाराणा प्रताप' (Hinduaana Suraj writer On Maharana Pratap) में पिरोया है. जिसमें मिर्जा राजा मानसिंह और महाराणा प्रताप के एक दूसरे की जान बख्शने, हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप के भाई शक्ति सिंह का मौजूद न होने और प्रताप के खास भामाशाह के योगदान का उल्लेख है.

क्यों हुआ था हल्दीघाटी युद्ध:आनंद शर्मा ने कहा कि कुछ उत्साही लोगों का कहना है कि हल्दीघाटी युद्ध एक राज्य को बचाने का युद्ध था. हकीकत ये है कि वो युद्ध धर्म को बचाने के लिए लड़ा गया था. 1567 में चित्तौड़ में मुगलिया सेना ने कत्लेआम मचाया. नरसंहार को देख महाराणा प्रताप को समझ में आ गया था कि अकबर के साथ किसी भी तरह का समझौता संभव नहीं है. उन्होंने अपने लोगों और धर्म की रक्षा करने का प्रण लिया. योजना बनाई लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि हल्दीघाटी युद्ध महाराणा प्रताप का अति उत्साह में किया गया युद्ध था.

Myth को दूर करने का प्रयास

मानसिंह और प्रताप में नहीं थी शत्रुता:जब मानसिंह को अकबर ने मेवाड़ विजय के लिए रवाना किया, तब उनमें आपस में शत्रुता नहीं थी. भले ही मानसिंह अकबर का सेनापति बन करके आया था. लेकिन राजपूत होने के चलते दोनों की बीच बहुत सौहार्द था. मानसिंह ने जब अजमेर से रवाना होकर नाथद्वारा के पास लोहसिंह में डेरा डाला, वहां तक उन्हें महाराणा प्रताप की कोई जानकारी नहीं मिल पाई. जबकि महाराणा प्रताप भीलों के कारण उसकी एक-एक गतिविधि से परिचित थे. युद्ध से 1 दिन पहले मानसिंह करीब 300 सैनिकों के साथ शिकार खेलने निकल गए. उस वक्त महाराणा प्रताप को सूचना मिली कि मानसिंह घने जंगलों में है, और इस समय उसे घेर कर मारा जा सकता है. लेकिन महाराणा प्रताप ने इसे विरोचित कार्य नहीं बताते हुए, ऐसा करने से इंकार कर दिया. ग्वालियर के राजा राम शाह तंवर ने भी उनका समर्थन किया था.

जब अगले दिन हल्दीघाटी युद्ध शुरू हुआ, तब मान सिंह के समझ आया कि महाराणा प्रताप उनके पास ही थे और उन्हें आसानी से मार भी सकते थे. उन्हें एहसास हो गया कि महाराणा प्रताप ने उनकी जान बख्श दी है. इसका बदला मानसिंह ने हल्दीघाटी युद्ध में चुकाया. हल्दीघाटी युद्ध अनिर्णीत रहा था. पहली बार जब महाराणा प्रताप ने आक्रमण किया, वो इतना तीव्र था कि मुगल सेना दो कोस तक भागती चली गई थी. हालांकि पीछे चंदावल की सुरक्षित सेना ने ये ढिंढोरा पीटा की बादशाह खुद सेना लेकर आ गए हैं. तब सैनिकों के पैर रुक गए. और वो दोबारा मैदान में आ गए. तब तक राजपूत सेना थक चुकी थी.

चेतक चढ़ गया था हाथी के मस्तक पर

युद्ध के दौरान गर्मी बहुत थी: गर्मी की तफ्सीलात देते हुए अबुल फजल ने लिखा है कि माथे में मगज उबल रहा था. तब युद्ध के दौरान ही महाराणा प्रताप को घेर लिया गया था. जिसमें मान सिंह के भाई माधव सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी. हालांकि मानसिंह ने महाराणा प्रताप को हिंदूआणा सूरज नाम देते हुए कहा था कि इन्हें जान से नहीं मारना है. अपने भाई से महाराणा प्रताप को युद्ध क्षेत्र से निकलवाने के लिए कहा. तब माधव सिंह ने महाराणा प्रताप के मुंह पर भाले के पिछले हिस्से से वार करते हुए उनके दो दांत तोड़ दिए, और ये कहकर उन्हें वहां से निकलवा दिया कि दोबारा सेना तैयार करके मुकाबला करना.

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चेतक हाथी मस्तक पर चढ़ गया था: आनंद शर्मा ने बताया कि महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक ने मानसिंह के हाथी के मस्तक पर पैर रख दिए थे. उसी दौरान दो घटनाक्रम एक साथ घटे. हाथी के सूंड में बंधे खांडे से चेतक का पैर कट गया. जिससे हाथ में भाला लेकर मानसिंह पर हमला करते समय महाराणा प्रताप का निशाना चूक गया. वहीं मानसिंह ने हाथी पर बने होदे में दुबक कर अपनी जान बचाई थी.

हल्दीघाटी युद्ध में मौजूद नहीं था शक्ति सिंह : आनंद शर्मा ने हल्दीघाटी युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह वाली बात को भी झूठ करार दिया है. उन्होंने कहा कि ये किंवदंती है कि शक्ति सिंह ने महाराणा प्रताप को बचाया. जबकि शक्ति सिंह ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग ही नहीं लिया था. उस युद्ध के दौरान न तो शक्तिसिंह किले में था. न उदय सिंह के साथ किले से निकले परिजनों की सूची में उसका नाम था. न ही हल्दीघाटी युद्ध में शक्ति सिंह का नाम मिलता है. यदि महाराणा प्रताप का सगा भाई उनके खिलाफ युद्ध में उतरता तो क्या अबुल फजल अपनी किताब में ये उल्लेख नहीं करता. जबकि फजल ने अपनी किताब में दोनों पक्षों के सभी सेनापति और योद्धाओं का उल्लेख किया है. जबकि शक्ति सिंह का कहीं उल्लेख नहीं है.

संघर्षों में बीता राणा का बचपन

महाराणा प्रताप के प्रति भामाशाह में थी असीम निष्ठा: भामाशाह के बारे में सिर्फ ये जिक्र किया जाता है कि उन्होंने महाराणा प्रताप को धन ला कर दिया. जिससे प्रताप का खर्चा चला. लेकिन भामाशाह का सिर्फ यही योगदान नहीं रहा. भामाशाह के योगदान को मेवाड़ कभी भूल नहीं सकता. भामाशाह करीब सात-आठ वर्ष की उम्र से ही महाराणा प्रताप के साथ रहे. यही वजह है कि भामाशाह प्रताप के सबसे विश्वस्त थे. भामाशाह की प्रताप के प्रति निष्ठा थी. राणा कुंभा और राणा सांगा के समय मेवाड़ का राजकोष अति संपन्न था. लेकिन अकबर ने जब चित्तौड़ पर हमला किया, तब उसे कोई खजाना नहीं मिला. बताया जाता है कि उदय सिंह चित्तौड़ छोड़ने से पहले हाथियों पर उस खजाने को ले गए थे, और मेवाड़ के दुर्गम पहाड़ियों में उस खजाने को सुरक्षित रख दिया था. जिसका उल्लेख भामाशाह एक बही में रखते थे. उस अपार खजाने पर भामाशाह की नियत कभी खराब नहीं हुई और समय-समय पर वही खजाने को महाराणा प्रताप को दिया करते थे. जिसका जिक्र भी महाराणा प्रताप को भामाशाह ने कर दिया था. भामाशाह ने महाराणा प्रताप के समक्ष कभी धन की कमी नहीं आने दी. अब्दुल रहीम खानखाना ने भामाशाह को अकबर के पास आने के लिए रिश्वत भी देने का प्रयास किया था. लेकिन भामाशाह ने इस प्रलोभन को भी स्वीकार नहीं किया था. इसका जिक्र अब्दुल रहीम खानखाना नहीं भी किया है.

हल्दीघाटी युद्ध से पहले हुई थी 4 समझौता वार्ता:महाराणा प्रताप बहुत कुशल कूटनीतिज्ञ थे. उन्हें अपनी सेना की तैयारी के लिए समय चाहिए था. ऐसे में राणा प्रताप ने चार समझौता वार्ताएं भी की. जिसमें उन्होंने किसी भी मुगल प्रतिनिधि को निराश नहीं होने दिया और हमेशा समझौता होने की आशा बनाए रखी. हालांकि समझौता करने का राणा प्रताप का कोई इरादा नहीं था. इन्हीं समझौता वार्ता में मानसिंह से जुड़ी एक किंवदंती भी है. उदय सागर की पाल पर जो समझौता वार्ता हुई, उसमें मानसिंह से वार्ता के लिए अमर सिंह पहुंचे थे. चूंकि मानसिंह आमेर का कुंवर था. ऐसे में उनके समकक्ष मेवाड़ के कुंवर अमर सिंह वार्ता के लिए पहुंचे थे. और जब मान सिंह के पिता भगवंत दास वार्ता के लिए आए थे, तब महाराणा प्रताप ने उनसे वार्ता की थी. इसी तरह राजा टोडरमल से वार्ता के दौरान महाराणा प्रताप ही मौजूद रहे थे. ये सभी वार्ताएं प्रोटोकॉल के तहत हुई थी. इसे जबरदस्ती मंघड़ंत विवाद बनाया गया. अन्यथा यदि मान सिंह का अपमान होता तो उसी समय युद्ध छिड़ जाता. आगे समझौता वार्ता होती ही नहीं. जब किसी भी समझौता वार्ता का नतीजा नहीं निकला, तब जाकर हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था.

घास की रोटी खाना है किंवदंती: मेवाड़ में करीब 300 वर्ग मील का पहाड़ी इलाका प्रताप के पास था. उसमें पहाड़ों के बीच सैकड़ों बीघा समतल जमीन थी. जहां बहुत खेती होती थी. जिनका उल्लेख भी मिलता है. इन्हीं खेतों में से अनाज और भोजन की दूसरी सामग्री स्टोर की जाती थी. उस दौरान हथियार भी बने, व्यवसाय भी हुए. ये जरूर था की युद्ध का समय कठिन समय था. कई बार भोजन बनता था और बना हुआ भोजन छोड़कर भागना पड़ता था. एक बार तो 5 बार भोजन बना और मुगल सेना के आने की सूचना पर पांचों दफा भोजन को मिट्टी में मिला कर भागना पड़ा.

बचपन भी संघर्ष में गुजरा: इतिहासकार आनंद शर्मा के अनुसार महाराणा प्रताप का बचपन संघर्ष में गुजरा. उनके पिता उदय सिंह भी उनकी उपेक्षा करते थे. वो अपनी भटियानी रानी के पुत्र जगमाल सिंह को गद्दी पर बैठाना चाहते थे. जबकि वंश परंपरा से गद्दी के हकदार प्रताप थे और वो योग्य भी थे.बड़ी मुश्किल से वो गद्दी पर बैठ पाए थे. इसी तरह के अनगिनत तथ्य आनंद शर्मा ने अपनी किताब के जरिए जाहिर किए हैं. इस दावे के साथ कि किताब को पढ़ने के बाद महाराणा प्रताप से जुड़ी कई किंवदंतियां दूर होंगी.

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